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ब्राह्मण / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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धरनी देखा धरनीमें, ब्राह्मण को व्यवहार।
सीधा मारग छोड़िके, अरुझि मुवै वनझार॥1॥

धरनी भरमी ब्राह्मणो, वसहिँ भरमके देश।
कर्म चढ़ावहिँ आपुशिर, अवरु जो ले उपदेश॥2॥

करनी पार उतारिहे, धरनी कियो पुकार।
साकट ब्राह्मण नहिँ भला, वैष्णव भला चमार॥3॥

ब्राह्मण के कुल जन्मिके, राम-भक्त जो होय।
धरनी देखो धरनिमें, ता सम तुलै न कोय॥4॥

एक ब्राह्मण कुल ऊपजो, दूजै प्रभु-अनुराग।
धरनी प्रगटै जानिये, ता शिर माटे भाग॥5॥

माँस-अहारी ब्राह्मण, सो पापी बहि जाव।
धरनी शुद्रहु वैष्णवा, ताहि चरण शिर नाव॥6॥

देवा देई पिंड जल, औ ग्रह तिथि व्यवहार।
धरनी ब्राह्मण वावरे, बिनु व्रत सिरजनहार॥7॥

कौड़ीकारन ब्राह्मणे, झूठ कहत हैं बीस।
धरनी सुनि भावै नहीं, त्राहि त्राहि जगदीश॥8॥