ब्रेक-अप-1 / बाबुषा कोहली
वो मिला था जब
उसके मन पर एक ज़िद्दी ताला पड़ा था
मेरा बचपन इतना एकरस कि उसमें आम तक चुराने की कोई घटना नहीं दर्ज
भला किसी तालाबन्द भवन में क्या सेंध लगाती
सो यहाँ-वहाँ नज़रें फेर लेती
एक दिन वो मेरा हाथ अपने सीने तक ले गया
और दाएँ हाथ की उँगली से ताला खोल दिया
मेरे मन पर भी रही होगी कोई साँकल शायद
उसने खट-खट की और बस !
एक उँगली की ठेल से मन खुल गया
हम दोनों के भीतर कोई तिलिस्मी झरना था
पेड़ों पर इन्द्रधनुष उगता
चिड़िया आँखें बन्द किए गाती थी अरदास
सोहनी मटके पे ताल देती
सुबहें थीं कि हँसी हीर की
रात-रात भर चाँद नदी में तैराक़ी करता
हम हर जगह पहुँच जाना चाहते कि जैसे तीरथ पर निकले हों
छूट न जाएँ कोई देव
इष्ट रूठ न जाएँ
हर मन्दिर का पंचामृत चखना चाहते
हर गुरद्वारे पर मथ्था टेकना चाहते
पर हाय री ! सड़कें भूलभुलैया
हम दूर से देख सकते थे पानी पर प्यासे रह जाते
हमारे मन के भीतर तन छुपे थे और तन के भीतर और मन
कितने तो तन थे और कितने मन
कितने तो ताले कितने डाके
कितनी तो दौड़ कितने इनाम
कितना लालच
कैसी अँधे कुएँ-सी झोली
हम प्याज़ की परतों जैसे थे
अपने ही झार से आँखें सुजाए बैठे
हम बहुत चले और बहुत चले और बहुत चले
फिर एक दिन अपने-अपने मन की ओर लौट गए
बची हुई नौ उँगलियों के साथ जीने को
सारा जादू बन्द दरवाज़े में है
ताला खुल जाए तो चाबी खो जाती है