ब्रेक-अप-3 / बाबुषा कोहली
आज एक सुनी-सुनाई कथा कहूँगी
एक पेड़ के पास से एक बच्चा गुज़रा
धूप से हलकान था वो, पेड़ ने छाँव दी । अब उस रास्ते से गुज़रते हुए अक्सर वो पेड़ के पास आने लगा। पेड़ ने चिड़ियों की चहक दी। मीठे फल दिए। कुछ और बड़ा हुआ तो एक लड़की के प्रेम में पड़ गया। पेड़ ने अपने सारे फूल उतार कर लड़के को दिए कि वो लड़की की चोटी के लिए वेणी गूँथ ले। कुछ समय बाद लड़की उसकी पत्नी हो गई । रोज़गार नहीं था । फिर पेड़ के पास गया । अबकी बार पेड़ ने लकड़ियाँ दे दीं । लकड़ियाँ बाज़ार में बेचने का काम शुरू हुआ और जीवन चल पड़ा ।
नीति कथाओं की मानें तो देने वाला और घना हो जाता है, और बड़ा हो जाता है । मगर सत्यकथाएँ कुछ और ही कहती हैं । दुनिया देख ली है बहुत, और सचमुच ! देने वाला आख़िर में ठूँठ रह जाता है ।
इतना दिया है इस पेड़ ने कि इससे कविता निचोड़ना पाप-सा लगता है । इस पर कुछ भी कहना ऐसा जैसे आख़िरी बार कुल्हाड़ी चला कर इसे नष्ट कर देना ।
'फ़ीनिक्स' सरीखे होते हैं कुछ दुःख
जिस आग में झुलसते हैं उसी से फिर पैदा हो जाते
कुल्हाड़ियों से भी कहाँ मिलती है मुक्ति
जंगल-जंगल प्रेत-सी भटकती हुई कोई बात
कुछ नहीं नष्ट होता पूरा कभी कि आख़िर में ठूँठ बचा रह जाता है
पता है खूब मुझे कि इच्छा का ग़ुलाम होना क्या होता है
और ये भी कि हर ग़ुलाम सलामी बजाने नहीं झुकता
कितनी तरह से झुक जाते हैं लोग
होता है कोई जो लालसाओं के बोझ से झुक जाता है
कोई झुक जाता है वक़्त की बेरहम मार के आगे
कोई बेवजह ही झुकने की अदाकारी करता
नाटक पूरा होता और पर्दा झुक जाता
कभी हो जाता है साथ-साथ ही मंच पर पर्दे का झुकना और आँख के पर्दे का उठना
बड़े ख़ूबसूरत होते हैं आत्मा से झुके हुए लोग
फलों से लदी डाली का झुकना पेड़ की नमाज़ है
झुकी नज़रों के सामने झुक जाते हैं आसमान सातों
भार से झुकना और आभार में झुकना
कि झुकने-झुकने में बड़ा फ़र्क है, पियारे !
कितना भी फेंट लो ज़िन्दगी को इस उम्मीद में
कि अब कि बार मन-माफ़िक पत्ते आएँगे
कोई तो चाल अपने हक़ में होगी
पर क्या कहें ?
बाज़ियाँ ऐसी भी देखीं जिसमें सारे खिलाड़ी हार जाते हैं
मैं एक बेबस बूढ़े आदमी को पहचानती हूँ
उसका क़िस्सा भी क्या कहना कि वो तो पहले से ही ग़ुलाम था
बहुत आसान था बेग़म की तरह उस पर हुक़्म चलाना
पर ये सन्तानहीन औरतें भी कहाँ-कहाँ औलाद खोज लेती हैं
बूढ़े आदमियों में छुपे चौदह साल के लड़के बहुत तेज़ छलाँग लगाते हैं
इस डाली से उस डाली तक कूदते -फाँदते उम्र को देते पटखनी
औरत फूल-सी खिलती, फलों-सी उग जाती है
इच्छा के ग़ुलाम को मिल ही जाती बादशाहत
अपने साम्राज्य के झण्डे झुका देती है एक औरत
झुकना, अपने आप में बात है पूरी
ठीक वैसे ही जैसे किसी बच्चे का खिलखिलाना
और एक पूरी सदी की प्रार्थना का सफल हो जाना
पूरी बातें बड़ी आसानी से पूरी हो जाती हैं
बिना किसी दाँव-पेंच के
बिना किसी बहस के
खेल के सारे नियम तोड़ कर राज करता है ग़ुलाम
हुकुम के चारों इक्कों पर
वो इच्छा का ग़ुलाम था
औरत उसकी इच्छा पूरी करने की इच्छा की ग़ुलाम
कहते हैं कर्ण ने तो आख़िर में दिए थे
मगर ये जो ममता होती है न !
सबसे पहले कुण्डल-कवच दे कर निहत्थी हो जाती है
और पेड़ आख़िर में ठूँठ बचा रह जाता है