ब्रेक-अप-4 / बाबुषा कोहली
उसकी कमीज़ से प्रेम करती रही मैं
पसीने की तरह उसकी देह से फूटती रही
बूँद-बूँद माथे पर टपकती रही ऐसे जैसे उसकी गाढ़ी मेहनत की कमाई हूँ
उसके नाखूनों को काटते वक़्त ख़ुद ही काटती रही अपनी बिरहिन रातों के तर्क
उस गली से तक प्रेम करती रही जहाँ से कभी गुज़रना पड़ा हो उसे बारिश या ट्रैफ़िक की मजबूरी में भी
उसकी मजबूरियों को कलेजे से चिपकाए फिरती रही
चिलचिलाती धूप में चलती रही मैं सूर्य से प्रेम करती रही
उसके नाम के हर पर्यायवाची से प्रेम करती रही
उस औरत से प्रेम करती रही जो सोने के पहले उसे चादर ओढ़ा देती है
वक़्त पर उसे दवाइयाँ देने वाली उस औरत के हाथों से प्रेम करती रही
मैं उस बच्ची से प्रेम करती रही जिसकी मुस्कराहट उसे ज़िन्दा रखती
उन तमाम औरतों से प्रेम करती रही जिनका नाम उसके क़िस्से में आया एक बार भी
उस वक़्त से प्रेम करती रही जब चौदह साल के लड़के ने नवीं जमात की लड़की को लिखी पहली चिठ्ठी
मैं कुछ ज़रूरी तारीख़ों से प्रेम करती रही
फिर एक दिन मैं भी वही हो गई
बह चुका पसीना
कटा हुआ नाखून
मजबूरी में ली गई सड़क
खुराक़ पूरी हो चुकी दवा
नवीं जमात में रुक गई लड़की
बीती हुई तारीख़
छूटा हुआ वक़्त
उस औरत के गले मिल कर रोना चाहती हूँ एक बार
जो बहुत पढ़ गई पर नवीं जमात से आगे न बढ़ पाई अब तक
हम सब जो उसकी पूर्व-प्रेमिकाएँ हैं, हम एक सामूहिक विलाप हैं
हम, अपने प्रेम के दाह-संस्कार में आई रुदालियाँ हैं
और मैं उसके प्रेम का अन्तिम शोक-संदेश हूँ
इस सारे रूदन के बीच कहीं एक किलकारी है
मैं सुन सकती हूँ
उसके कानों में रुई ठुँसी है
मैं उसके अजन्मे बच्चों से प्रेम करती रही