भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ब्लैक-होल / अनिल गंगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो दौड़े जा रहे हैं बगटुट किसी अज्ञात अनन्त की ओर
नहीं पढ़ी हो उन्होंने शायद बचपन में
आसमान के धरती पर गिरने की कथा
फिर भी भागे जा रहे हैं वे
पता नहीं किसे पीछे छोड़ते हुए
और किससे आगे निकलने के लिए

क़यास है उनका
कि बस गिरने ही वाला है आसमान उनके सिरों पर

हालाँकि उनके मत से
हो चुका है सृष्टि के कोनों-अन्तरों में पसरे विचारों का अन्त
फिर भी भयभीत हैं वे
कि दिमाग़ की भूलभुलैयों में वयस्क हो रहे
ईर्ष्या, द्वेश ,हिंसा, प्रतिहिंसा और रक्तपात पर
बस गिरने ही वाला है आसमान

डर है उन्हें
कि बचा रहेगा पृथ्वी पर अगर एक भी सकारात्मक विचार
तो कैसे चल पाएगी उनकी अपराधों से अँटी दुकान

उन्हें देख
भागे जा रहे हैं दुनिया की आपाधापी में फँसे जन
अपने घर-मढ़ैयों, ज़मीनों, दुकानों को पीछे छोड़ते
और आख़िर में कहीं अन्तरिक्ष में खोए
किसी सुदूर ग्रह से सुनाई देती एक मासूम पुकार को
आसमान के तले दबी चीख़ के नीचे
दफ़्न होने से बचाने के वास्ते

बहुतेरे अजनबी चेहरे हैं इस भागमभाग में
जो नहीं जानते
कि क्यों दौड़े जा रहे हैं वे दुनिया के निर्वात में निरुद्देश्य
बस, दौड़े जा रहे हैं वे एक ही और अन्तिम लक्ष्य के साथ
कहीं भी न पहुँचने के लिए
ठीक वैसे ही
जैसे इस दौड़ में अपनी धुरी पर घूम रहे हैं धरती और ग्रह-नक्षत्र
ब्लैक-होल की तरफ़ लुढ़कते हुए।