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ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है / शहराम सर्मदी

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ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
वो सादा लौह हमें चाहता अभी तक है

फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़रक़ आया
जो एक मसअला-ए-दर्द था अभी तक है

शुरू-ए-इश्क़ में हासिल हुआ जो देर के बाद
वो एक सिफ्ऱ तह हाशिया अभी तक है

हुलूल कर चुकी ख़ुद में हज़ार नक़्श ओ रंग
ये काएनात जो ख़ाका-नुमा अभी तक है

तवील सिलसिला-ए-मस्लहत है चार तरफ़
यक़ीन कर ले मिरी जाँ ख़ुदा अभी तक है