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भँवर पर्व / अमरेंद्र

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छायी हैं खुशियाँ अनन्त चम्पा के राजभवन में,
इसी बात की चर्चा है धरती पर, नील गगन में;
लौटा, जो मधुमास गया, फिर जमकर ठहर गया है,
किस अनन्त की खुशियांे से पत्थर तक सिहर गया है।

फूलों से भी अधिक मुलायम काँंटों की काया है,
प्रखर जेठ की भी दोपहरी बादल की छाया है;
गंगा की लहरें असीम को छूने को व्याकुल हैं,
भरे वेग से बढ़े जा रहे वे भी जो झुल-झुल हैं।

चम्पा के कण-कण में जैसे सूर्य समाया लगता,
इतनी शोभा है धरती पर स्वर्ग अघाया लगता;
अधिरथ के मन की उमंग की आज नहीं है सीमा,
किस अछोर की पुलक भरी जाती है धरती भीमा!

अंग देश का कर्ण भूप हो, साध यही अब मन की,
अधिरथ की ही नहीं, धरा की, ऊपर नील गगन की;
राधा की रट यही, देर अब करना कहाँ उचित है,
कर्ण भूप हो, भाग्य अंग का इसमें सकल निहित है।

सब कुछ सोच कहा अधिरथ ने " इसमें क्या कुछ शक है,
लेकिन शुभ-शुभ नहीं दिखाता कृष्ण पक्ष जब तक है;
धृतराष्ट्र का आमंत्राण भी कल ही मुझे मिला है,
चम्पावन में कोविदार का लगता पुण्य खिला है।

" जाना होगा मुझे, कर्ण भी मेरे साथ चलेगा,
धृतराष्ट्र के पुत्रों से यह वर्षों बाद मिलेगा;
पांडव-कौरव के कौशल की होगी जहाँँ परीक्षा,
पूर्ण हुई है, तात द्रोण से जो मिलनी थी शिक्षा।

" चार दिनों तक रुकना होगा, फिर दो दिन जाने में,
कुछ विलम्ब अब कहाँ दिखाता इच्छित फल पाने में;
यह अंतिम ही बार पवनरथ को भी मैं हाँकूँगा,
कुलदेवी से प्राप्त कला को ऐसी गति, लय दूँंगा।

" देशकाल सब गुँथे चक्र में सम्मुख खड़़़े मिलेंगे,
एक बार फिर पारिजात से मेरे प्राण खिलेंगे;
लेकिन इच्छा यही कर्ण की हाँके आज वही रथ,
इसी बात को लेकर उसका मन देखा है उद्धत।

" अब उसका है मन, तो कैसे उसको रोक सकूँगा,
न जाने फिर इस सुयोग को कब अवलोक सकूँगा!
अच्छा होगा, देखूँगा रथ मारुत हाँक चले, वह
उड़ते हुए काल-संवत्सर-क्षण को छाँक चले, वह। "

सुन राधा के आनन पर मुचकुन्द खिले सौरभ से,
उतर रही हो स्वर्ण रश्मियाँ एक साथ ही नभ से।
उधर द्वार पर सजा हुआ रथ अश्वों से सज्जित है,
जिसे देखकर दिव्य दिवस का नभ में रथ लज्जित है।

कसा हुआ है कर्ष, सारथि गति को हाँक चलेगा,
कहना मुश्किल धरा हिलेगी या फिर व्योम हिलेगा;
दिशा-दिशा है, सावधान तो काल हाथ को जोड़े,
पौरुष का रत्नाकर फेनिल कहीं नियम न तोड़े।

अधिरथ का आसन लेना था, गति ने खोली पाँखें,
देख मरुत की खुली रह गई अचरज से ही आँखें।
मिला कर्ण-संकेत उठ गए भू से रथ के चक्के,
आपस में खा रही दिशाएँ, देश-काल सब धक्के.

एक निमिष के लिए दिखा रथ और वहीं ओझल है,
रथ है कि जलती रेतों पर एक बूँद का जल है?
सिकुड़ गया था काल समेटे अपनी विस्तृत सीमा,
लघु-लघु में सब बदले थे जो कुछ थे भीमा-भीमा।

पहुँचा जब धृतराष्ट्र नगर के रंगमंडप में कर्ण,
कृपाचार्य के, द्रोण-विदुर के हिले हृदय के पर्ण;
" कहीं दृश्य न उलट चले और अर्जुन के विपरीत बने,
हार कौरवों की पलटी ले और वही फिर जीत बने। "

कहा द्रोण ने कृपाचार्य से, " किसको ज्ञात नहीं है,
खुली दिवस की बातें हैं, ये दिन पर रात नहीं है;
दुर्योधन ने कहा कर्ण से, तुरत भीम को बाँधा,
कर्णभुजा ने गिरि के बल को जंजीरों से साधा।

" फिर उफनाती हुई नदी में छोड़ चला आया था,
पांडव के पौरुष को पल में तोड़ चला आया था;
अब तो इसने परशुराम से पाई हैं सब निधियाँ,
अग्नि, वरुण और वायु-भूमि के अस्त्रों की सब विधियाँ।

" कर्ण अगर चाहे तो वन में क्षण में आग लगा दे,
अंतरिक्ष के शून्य विवर में सोया मेघ जगा दे;
बरस पड़े सावन वसुधा पर आँधी फिर लहका दे,
एक तीर से अग्नि-हवा को चाहे तो बहका दे।

" एक तीर से नियति-काल का चक्र बदल सकता है,
एक तीर से पांडव का यह भाग्य निगल सकता है;
" एक तीर से अनहोनी को होनी भी कर डाले,
एक तीर से चाहे तो यह अपना पक्ष बचा ले।

" एक तीर से चाहे तो यह गिरि को अभी हिला दे,
जो भी है गतिमान अगति से पल में उसे मिला दे;
" कृपाचार्य, जो कुछ सीखा है परशुराम से मैंने,
वही सिखाया है पांडव को, हो निष्काम-से मैंने।

" पर यह कर्ण तो सीधे उनसे सीख सभी आया है,
लगता है अनहोनी ही होनी है, क्या माया है।
पर कुछ तो करना ही होगा सव्यसाची की खातिर,
चुप तो नहीं रहा जा सकता, तात समझिये आखिर।

" मैंने भी तो ज्ञान-दान से इसको दूर रखा है,
इसीलिए तो दुर्योधन का भाई और सखा है।
मेरी बातों को मानेगा, मान नहीं मैं सकता,
अन्य पुरुष यह बना हुआ है प्रथम पुरुष का वक्ता।

" सचमुच में यह कठिन काल है पांडव-पथ का रोड़ा,
घुन बन सकता है काया का, तिल भर का यह फोड़ा;
कूटनीति से इसे झुकाना ही संभव है, तात!
और नहीं तो कभी नहीं आने को स्वर्णिम प्रात।

" कंचन गिरि-सा कर्ण बढ़ा आता है मंडप ओर,
तमस चीर कर ज्यों उठता है लिए भानु का भोर।
सबकी आँखें उसी ओर हैं, विस्फारित, अति विस्मित,
प्राणों की हलचल है ठहरी, साँसें सब की विरमित।

" अच्छा होगा किसी तरह से इसका तेज हरण हो,
तन का बल तो तुरत गिरेगा मन का अगर क्षरण हो;
" क्षत्रिय है तो क्या होता है, सूतकर्म तो इस्थिर,
इस नाते तो कर्ण ठहरता, सूत पुत्रा ही आखिर।

" राजपुत्रा की जगह अगर हो सूतपुत्रा सम्बोधन,
निश्चित मन का तेज गिरेगा, यह रहस्य क्या गोहन?
नीचा अगर दिखाने में हम सफल कहीं हो जाते,
देखेंगे अपनी आँखों से पार्थ-जीत को आते।

" लेकिन यह सब ऐसे कुछ हो, कुछ भी पता चले न,
खले अगर तो सिर्फ़ कर्ण को, नृप को कभी खले न।
कहीं बात जो बड़ी लीक से, चाल पलट सकती है,
कूटनीति सब बनी बनाई कभी उलट सकती है।

" क्या रहस्य? जो छिपा हुआ है दुर्योधन आँखों से,
वह तो ऐसा विहग; देखता है अपनी पाँखों से।
मैं बोलूँ, इससे तो अच्छा भीम इसे ही बोले,
कितनी चोट पहुँचती इससे, इसको ज़रा टटोले।

" तब तक रोके रहिए इसको, चाहे जैसे भी हो,
कूटनीति तो कूटनीति है, अच्छी या मैली हो। "
सुन कर आँखें चमक उठी थीं कृपाचार्य की ऐसे
दबी राख में लहक उठी हो आग अचानक जैसे।

"रुको कर्ण" कह कृपाचार्य कुछ आगे बढ़े, रुके फिर,
" बिना निमंत्राण के आए हो, क्या उद्देश्य है आखिर?
सव्यसाँचि से द्वन्द्वयुद्ध की चाहत घोर अनय है,
पांडूनंदन अर्जुन है, कुन्ती का कुक्षि-तनय है।

" और अगर जिद यही तुम्हारी तो इतना बतलाओ,
राजा हो या राजकुँवर, तब ही तुम हाथ मिलाओ!
पहले अपने मातृ-पितृ का वंश बताना होगा
द्वन्द्वयुद्ध के लिए धर्म जो, उसे निभाना होगा। "

उबल पड़ा दुर्योधन सुनकर, गरजा मेघ धरा पर,
सिहरी थी रंगशाला ही क्या? ऊपर, नीचे, बाहर;
और वहाँ से तीन बाँस पर गूँज गया स्वर कातर,
उतनी खनक दिखी थी उसमें जितना था वह झांवरµ

" यह अधर्म है, प्रश्न व्यर्थ हैै, वीरों का अपमान,
तेजपुंज जब प्रकट; यही तो क्षत्रिय की पहचान;
कहे नहीं क्या स्वर्ण कवच-कुंडल की आभा परिचय?
देववंश का प्रकट अंश है, शक क्या। यह तो निश्चय।

" और यही कल अंगदेश का नृप भी होगा घोषित,
चम्पा नरेश अधिरथ की रानी राधा से है पोषित। "
रंगमंडप में गूँज गया स्वर नारी का गंभीर,
जो प्रकोष्ठ से आया था रानी का, बहुत अधीर।

सुना कर्ण ने विचलित मन से उस नारी के स्वर को,
कृपाचार्य को कहे बिना कुछ; रोका खुले अधर को;
पर दुर्योधन रुका नहीं, दुहराया उसी कथन को,
अपने घोषों से थर्राता धरती और गगन को।

उधर भीम भी हाँक रहा है " क्षत्रिय है तो क्या है,
सूत-कर्म में दक्ष, सूत है, किसको नहीं पता है।
अब तक विदित नहीं था यह सब, लेकिन अब सब ज्ञात,
क्या हविष्य का अधिकारी है श्वान, पतित की जात? "

लेकिन कुछ क्या सुना कर्ण ने कोलाहल से दूर,
व्यथित कथन से कृपाचार्य के, तन-मन चकनाचूर;
पर कानों में गूँज रहा है, 'देव वंश का अंश' ,
जो उतारता कृपाचार्य के, भीम-कथन के दंश।

'अंगराज की जय हो' करता नाद तुमुल कौरव-दल,
कर्ण-शीश पर क्षत्रा रखे दुर्योधन पागल-पागल;
पर इस सबसे दूर अभी भी कर्ण कहीं है खोया,
किस-किस की बातों से कितना तड़पा, कितना रोया।

आँखें बंद हुई पल भर को, नभ की ओर निहारा,
भीेगे मन से पृथापुत्रा ने रवि को निरख पुकारा
देखा, उतर रही हैं किरणें, नीली, पीली, रक्तिम
हरी, बैगनी, नारंगी, आकाशीµगाढ़ी, मद्धिम,

धाता, मित्रा, वरुण, पूषा, पर्जन्य, त्वष्टा,
उतर रहे हैं उसके मन में विष्णु रूप धर स्रष्टा;
उसके सर पर उषा, प्रभा, छाया का छायातप है,
होने लगा हृदय में उसके पिंगल अजपाजप हैैै।

लगा कर्ण को वही इन्द्र है, विवस्वान है, पुष है,
अपना ऐसा रूप निरख कर कितना प्रमुदित खुश है;
वही प्रकृति के रोम-रोम में भास्वर बना समाया,
जड़-चेतन का हर्ष-शोक उसके ही मन की छाया।

वही चैत, बैशाख, जेठ है, उर्जा का है आश्रय,
क्या आषाढ़; वही सावन है, भादो है रस अक्षय;
आश्विन अगर समाहित उसमें, कार्तिक-अगहन संग हैं,
पूस, माघ, फागुन के सारे खुले-खुले से रंग हैं।

वही सूर्य है, वही चंद्र है, वही अग्नि है भू पर,
जो कुछ दिव्य-दिव्य है शोभित, ऊपर-ऊपर, ऊपर"
रोमांचित हो गये कर्ण के रोम-रोम हो पुलकित,
जाग उठे हों सारे गुण ही पूर्व जन्म के संचित।

देखा आँखें खोल हर्ष का नाद बहा जाता है,
कोई कंधे पर कर रख कर फिर-फिर सहलाता है;
नृत्य-गीत के साथ घोष भी 'जय अंगेश' वही है,
नाच रही अम्बर पर किरणें, नीचे धरती भी है।

सब अचेत-से हुए जा रहे ऐसी खुशी बढ़ी है,
पर पांडव के, कृपाचार्य के, मन पर व्यथा पड़ी है।
निकल गया कब कर्ण वहाँ से ज्ञात नहीं हो पाया,
रथ को आँधी से बाँधे वह अंग देश को आया।

कहीं हर्ष है, कहीं व्यथा है, कहीं मौन-कोलाहल,
कहीं तमस की छाया छायी, कहीं ज्योति है झलमल।