भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भंवरे निकल पड़े बागों में / हरिवंश प्रभात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भंवरे निकल पड़े बागों में, मन हर्षाना होता है
धरती पर इस तरह बहारों का आना होता है।

कलियों के अधरों को पीने में, बेसुध बनजारा है,
गालों पर स्पर्श करे जो मस्त पवन आवारा है,
संकेतों से भावों को इस तरह बताना होता है।
धरती पर इस तरह....

अमराई में कोयल कुहुके, आँख में प्रीत का कजरा
भावों की चूनर पहने, बालों में फूल का गजरा
लाज का घूँघट पट, धीरे-धीरे सरकाना होता है।
धरती पर इस तरह....

सरसों की पीली चादर पर, मौसम ने ली अंगड़ाई
आंगन में रंगोली छाई, बजी प्यार की शहनाई,
हर रिश्ते में केसर कस्तूरी महकाना होता है।
धरती पर इस तरह....

कहाँ बसे हो कंत मेरे, परदेशी अब आओ तुम
मंजरियों की तरह दिशाओं को भी महका जाओ तुम,
आता नहीं है गर बंसत तो फिर लाना होता है।
धरती पर इस तरह....