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भक्ति-महातम / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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दूतन टेरि कह्यो यमराज, ”करो कछु काज सुनो किन यारो।
जाहु जहाँ मृतलोक बसै नवखंड प्रचंड प्रताप हमारो।
जीवन पाँवहि जान कहीं, सबहीं धरि आन भरो बँदिसारो।
जे कहुँ हैं हरि के भगता तिनके गृह तू जनि हाथ पसारो“॥1॥

दूत कहे कर जोरि ”कहा भगता गुन कौन सुनै हम पावैँ।
दानि कवीश्वर देव योगीश्वर कै तपसी तिरथादिक धावैं॥
पंडित होत कि धौँ शिर-मुंडित, पूजत देव जो घंट बजावैं।
कै उनकी करनी कछु और, जैते सबके सिरताज कहावैँ॥2॥

दास कहे सुख पावत हैं, गुन गावत हैं उमगे अनुरागी।
तुलसी हुलसी हिय हार लसी, हरि मंदिर रेख लिलारहिँ लागी॥
जीव दया जिनके जिय में, मुख राम-सुधा रसना रसपागी।
जो जग मेँ यहि भांति रहैं, धरनी ते बडे दर्बारके दागी“॥3॥

ता छन दूत रजाय लई, शिर नाय चले महि-मण्डल आये।
जीव पुरे अपराधि भरे कर वांधि केते यमलोक चलाये॥
भक्त के द्वार पुकार कियो पट पालि तहाँ प्रभुता जो जनाये।
राम के दूत दई मजबूत, चले भजि दंड कमन्द गँवाये॥4॥

नयनन नीर विरुप शरीर, गये यम-तीर कहो लट छूटो।
”वाजत ताल मृदंग सुनो चलि, कौतुक हेतु तहाँ हम जूटे॥
आनि अनेक परे शिर-ऊपर, जानि परी तिन भाँतिन कूटे।
मुंड चले मुंडियावलि वंड, जो दंड कमंडलु ता सब लूटे॥5॥

सुनि के सबमान कियो यमराज, अन्हाय सबै पट फेरि पेन्हाये।
जो उपदेश दियो हम आदि, कियो बरबादि सबै बिसराये॥
जिनते हमरो न बसाय कछू, तिनते धौं कहो तुव कौन बसाये।
फेरि सुनो एक बार खरी, कुसलात परी जो यहाँ लगि आये॥6॥

दूत बहूत करैं विनती ”सु निये यमराज बड़े भुवपाला।
जो हमते सुख मानत हो करि देहु हमैं हरि-मंदिर माला॥
जीव-दया करिहौं हमहूँ, सबहूँ अबहूँ लगि अवसार भाला।
भक्ति महातम देखि हमें, नहि आवत है रमनी रमसाला“॥7॥

हिय में हँसि के यम-राज कह्यो, ”तुम कह उदास कहो मोरे भाई।
साधु जो आवत हैँ हमरे यह, जानि करो तिनकी सेवकाई॥
याहि मते बनि हैं सब काम तजो मति खाम करो फर्माई।
दोष कछू हमको तुमको नहि, भोगत हैँ सब आपु कमाई॥8॥

मानि रहे जिय जानि सबै, बिल छानि परी जिमि धान पछोरे।
मोल अटा अरु चाउर को सो परो समुझी बहु भावन थोरे।
धरनी तबते यमदूत कहीं, कबहूँ अस काम कियो नहिं मोरे।
भक्त को नाम विलोकत धाम, करें परनाम दुवो कर जोरे॥9॥

भक्ति-महातम जानि पढ़े नर, ता घर भक्ति-महातम बाढ़ो।
नवग्रह भूत न दूत दुखावत, गावत मोद भरे गुन गाढ़ो॥
धरनी कह राम-प्रताप तहाँ, दिन राति रहो शिर-ऊपर ठाढ़ो।
को उनके शिर चापि सके, तेहि गाढ़ परे पल में गहि काढ़ो॥10॥