भगवदाश्रम / सूरदास
मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसें उड़ि जहाज को पच्छी; फिरि जहाज पर आवै ।
कलम-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्वावै ॥
परम गंग कौं छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ।
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भावै ।
सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ॥1॥
हमैं नँदनंदन मोल लिये ।
जम के फंद काटि मुकराए, अभय अजाद किये ।
भाल तिलक, स्रबननि तुलसीदल, मेटे अंक बिये ।
मूँड्यौ मूँड़, कंठ बनमाला, मुद्रा चक्र दिये ।
सब कोउ कहत गुलाम स्याम कौ, सुनत सिरात हिये ।
सूरदास कों और बड़ौ सुख, जूठनि खाइ जिये ॥2॥
राखौ पति गिरिवर गिरि-धारी !
अब तौ नाथ, रह्यौ कछु नाहिन, उघरत माथ अनाथ पुकारी ।
बैठी सभा सकल भूपनि की, भीषम-द्रोन-करन व्रतधारी ।
कहि न सकत कोउ बात बदन पर, इन पतितनि मो अपति बिचारी ।
पाँडु-कुमार पवन से डोलत, भीम गदा कर तैं महि डारी ।
रही न पैज प्रबल पारथ की, जब तैं धरम-सुत धरनी हारी ।
अब तौ नाथ न मेरौ कोई, बिनु श्रीनाथ-मुकुंद-मुरारी ।
सूरदास अवसर के चूकैं फिरि पछितैहौ देखि उघारी ॥2॥