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भजन-कीर्तन: कृष्ण / 25 / भिखारी ठाकुर
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प्रसंग:
चीर हरण के समय द्रौपदी का विलाप।
दुश्मन खींचत बा चीर हमारी, अब पत राखऽ गोबर्द्धनधारी॥
क्षत्री वंश विध्वंस हो गइलन, सभा में कलपत नारी॥
ससुर-भसुर-पति-देवर, जाउत सब बइठल मन मारी॥ अव.॥
पैर में पीर शरीर दुखीत बा, मासिक धर्म से लचारी॥
दुःशासन दुर्दशा बनावत, दुर्योधन ललकारी॥
सब अपना सपना हो गइलन, नाहक जाल पसारी॥
धरती हमें पाताल खिलादो, आपन कलेजा फारी॥
कहत ‘भिखारी’ हमारी माफ करऽ, सब अवगुण त्रिपुरारी॥
दया के सागर परम उजागर, करहू अधम से उधारी॥
गोबिन्द नामम् सुमरेम् तुभ्यम्।