भटकन / शशि सहगल
भटकना है मनुष्य की नियति
यदि न हो विश्वास
तो पलटिये अपने जीवन के पन्ने
कहाँ से शुरू करेंगे?
बचपन ही याद आयेगा सबसे पहले
छोटी मोटी हर चमकती चीज़ के लिए
रोता मचलता बचपन
मांगता कभी तारा और कभी चाँद
यानी कुछ प्राप्य कुछ अप्राप्य
भटकते मन को
भ्रमों में उलझाती माँ
ला खड़ा करती है
यौवन की दहलीज़ पर
पर बनी रहती है भटकन वही पुरानी
बस बदल जाते हैं आलम्बन
जवानी के सुखों को ताकता मन
कभी अर्थ तो कभी यश
उलझता है 'काम' में
ढूंढता है अतृप्ति में तृप्ति का सुख
तभी अचानक
खड़ा पाता है खुद को
उम्र के तीसरे पड़ाव में।
अब उसे रोशनी की तलाश है
वह रोशनी जो दे सके शांति
स्थिर कर दे चंचल मन
अनुत्तरित सवालों के हल ढूंढता
सोचता है आदमी
क्यों भटक रहा है वह
अस्पष्ट है आज भी उसे
कि परम सत्य की खोज
भटकन का ही दूसरा नाम है।