भटका हुआ था राहनुमा मिल गया मुझे / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
भटका हुआ था राहनुमा मिल गया मुझे
ऐसा लगा कि जैसे ख़ुदा मिल गया मुझे
ख़्वाबों में आ के जो मेरा दामन भिगो गया
वो सुब्ह दम बगल में खड़ा मिल गया मुझे
कुछ इस अदा से तान के अंगड़ाई उसने ली
बेताब ख़्वाहिशों का मज़ा मिल गया मुझे
बाहों में भर लिया तो सुकूं क़ल्ब को मिला
रातों को जागने का सिला मिल गया मुझे
दैरो-हरम मिले न मिले मुझको ग़म नहीं
खुश हूँ कि मैकदे का पता मिल गया मुझे
पहले के ज़ख़्म तेरे दिए, थे अभी हरे
ऐसे में ज़ख़्म दिल पे नया मिल गया मुझे
कलियों को तोड़ने की मनाही थी बाग़ में
क़िस्मत से एक फूल खिला मिल गया मुझे
मांगे मिली न भीक उसे बाख़ुदा मगर
नोटों से भरा बैग पड़ा मिल गया मुझे
मुद्दत के बाद मिल गयी मंज़िल मुझे 'रक़ीब'
उसके ही घर से घर भी लगा मिल गया मुझे