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भटके अगर ज़मीन पर अख़्तर तलाशते / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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भटके अगर ज़मीन पर अख्तर तलाशते।
ये पाँव रह न जायें महावर तलाशते।
चाहा किसी फकी़र ने कब तख्तों-सल्तनत,
पाया है हर कबीर को मगहर तलाशते।
सजदे में अपने आप झुका सर ये कह गया,
देखा है किसने नींद को बिस्तर तलाशते।
जाऊँगा पूरी शान से दुनिया को छोड़कर,
रह जायेंगे रक़ीब मेरा सर तलाशते।
करने थे दर्ज नक़्श तवारीख़ पर तुम्हें,
कोई सफ़र में मील का पत्थर तलाशते।
निकला था घर से सुब्ह को लौटा न शाम तक,
इक शख़्स खो गया है तेरा घर तलाशते।
होते जो हम नसीब से मसनद पर आपकी,
अपने ही गाँव में कोई रहबर तलाशते।
कहना, सिखा सके जो मुझे मीर-सी ग़ज़ल,
‘विश्वास’ ख़ुद सफ़र में है वह दर तलाशते।