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भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए / शहबाज़ ख्वाज़ा

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भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
हम अपनी ज़ात को पाताल में उतारे हुए

सदा-ए-सूर-ए-सराफ़ील की रसन-बस्ता
पलट के जाएँगे इक रोज़ हम पुकारे हुए

शिकस्त-ए-ज़ात शिकस्त-ए-हयात भी होगी
कि जी ना पाएँगे हम हौंसलों को हारे हुए

ऐ मेरे आईन-रू अब कहीं दिखाई दे
इक उम्र बीत गई ख़ाल-ओ-ख़द सँवारे हुए

मता-ए-जाँ हैं मिरी उम्र भर का हासिल
वो चंद लम्हे तिरे कुबे में गुजारे हुए

जमीं पे ज़र्रा-ए-बे-नाम थे मगर ‘शहबाज’
बुलंदियां पे पहुँच कर हमीं सितारे हुए