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भट्टी / विजेन्द्र

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तोड़ रहे जो पत्थर गिट्टी
जेठ मास की धूप तपन में
नहीं दिखाई देती मुझको
भभक रही है अन्दर भट्टी
छाँह नहीं हैं दूर-दूर तक
काट रहे संगमरमर के चौके
अजब हुनर है उनके हाथों में
नाप-तोल कर भाँप रहे हैं
आँखे लगी हैं
दाँतदार पहिए पर
नहीं सूत भर इधर उधर
उँगली से छैनी
साध रहे हैं
आए हैं जो लोहा ढोकर
बात नहीं कह पाते पूरी
देह पसीने में है तर
हाँप रहे हैं
अपने ढब पर
जब होते हैं लामबदं वे
अभिजन सारे काँप रहे हैं
नही दिखाई देता मुझको
उनका लड़ना-बिड़ना चाहे
अपने हक को जाग रहे हैं।

1.08.2007