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भट्ठी / शशि सहगल
Kavita Kosh से
ज़िंदगी एक भट्ठी है
जिसका ताप
उम्र के घटने बढ़ने से जुड़ा है
बचपन में कम होता है सेक
पर चिन्ता नहीं होती
वर्षों की उम्रों का ईंधन
बड़ी लापरवाही से बिखरा होता है
इधर-उधर।
यौवन आते ही
तेज़ तपना चाहती है
सारा का सारा ईंधन
एक बार ही झोंक तेज़ तपी रहना चाहती है भट्ठी
इतना तपे कि जग
आहें भरता महसूसे इसका सेक
और तो और कम ईंधन से भी
तपी नज़र आना चाहती है
यौवन की भट्ठी।
जमा घटा करते करते
ऐसे ही एक दिन
उम्र रुकती है अधेड़ दरवाज़े पर
जिसके दरीचों से दिखती है
ठंडी सफेद बर्फ
और डराती है ठंडेपन से
फिर भी यह कमबख़्त दिल
याद करता है गर्म भट्ठी
हताशा में झुंझलाता
ढूंढता है
राख के ढेर से कोई चिनग
और बेबस हुआ, मुंह उठा
देखता है-
ठंडी भट्ठी।