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भय / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
कितनी सचमुच है यह स्त्री
कि एक बार इसके सारे बदन का एक व्यक्ति बन गया है
उसके बाल अब घने काले नहीं
दुख उसे केशों का नहीं है
वह उदास नहीं डरी हुई है अधेड़ है औरत है
सुन्दर है
होनी की तस्वीर एकदम उसके मन में चमक गई है इस क्षण
वह जवानी में बहुत कष्ट उठा चुकी है
अब वह थोड़े थोड़े लगातार स्नेह के बदले
एक पुरुष के आगे झुककर चलने को तैयार हो चुकी है
वह कुछ निर्दय पुरुषों को जानती है जिन्हें
उसका पति जानता है
और उसे विश्वास है कि उनसे वह पति के ही कारण
सुरक्षित है
वह हाथ रोककर एकटक देखती है हाथ
फिर पहले से धीमी कंघी को बालों में फेर ले जाती है उनके सिरे तक