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भय / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल

मोड़ पर सी आई टी रोड के हाथ फैला
सो रही है मेरी बेटी फुटपाथ पर
छाती के पास है कटोरा एनामेल का।

हुई है दिनभर आज वर्षा उसकी भिक्षा के ऊपर
समझ नहीं पाया इसीलिए कौन-सा था उसका रोना
और कौन-सा वर्षा-स्वर।

उस दिन खो गयी थी वह जब
गलियों के चक्र में
रो उठी थी
जैसे रो पड़ती हैं लड़कियाँ बेसहारा।

कहा था तब भय कैसा
मैं तो पीछे ही था तेरे।

पर होता है भय मुझे भी
जब वह जाती है सो
और फोड़कर मेघ को
उसके होंठों के कोने पर आ रहता है
एक टुकड़ा प्रकाश का।

मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)