भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भरते-भरते / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भरते-भरते
जितना-जितना
भरता जाता
उतना-उतना मन गहरे से
ज्यादा गहरा
होता जाता
मानव का मन पूरा-पूरा कभी न भरता
कुछ-कुछ खाली-खाली दिखता
चाहे
इसमें सिंधु समायें
चाहे,
शोभा सुषमा सारी
संस्कृतियाँ इसकी हो जाएँ,
ललित लोक पर लोक बसाएँ-
इसके भीतर
अपनी दुनिया।

मानव का मन
हरदम
हरदम
भरा-भरा भी भरा न लगता
मथा-मथा भी मथा न लगता,
शंख सरीखा
बजने लगता;
नादनिनादित
शब्द निकलते
कविताओं के साथ थिरकते।

मानव का मन प्रगतिशील है
गत से आगत
आगत से आगम को जाता
आगम को भी
गत-आगत कर-
आगे का आगम हो जाता,
कभी न पिछड़ा-
कभी न
छिछला होता
व्यापक से व्यापक हो जाता।

रचनाकाल: ०४-०४-१९९१