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भरम की मंजूषिकाएँ / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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याद अब
कुछ भी नहीं है
एक मीठी सी छुअन
अहसास में घुलने लगी है।

टाँकता जब प्रीतिगाथा
पाँखुरी पर एक मधुकर
या कभी
जब गन्धमादन
गीत लिख जाता अधर पर
तब किसी अन्तः पटल का
आवरण झीना हटाकर
एक दृश्यावलि
नयन के
        द्वार पर सजने लगी है।


रात के अन्तिम प्रहर में
स्वप्न शिखरों पर विरमती
नींद की अँगड़ाइयाँ जब
प्यासके पीछे बहकतीं
और खुलती भोर में जब
भरम की मंजूषिकाएँ
याद की सुकुमारिकाएँ
रेत पर तपने लगी हैं।

ज़िन्दगी
ठहरी नहीं है
चल रही, चलती रहेगी
ओर दुनिया भी यों ही
छलती रही, छलती रहेगी
हर सुलगते प्रश्न का
उत्तर
छलकता प्यार ही है
नफरतों की आग सेे,
इन्सानियत
जलने लगी है।