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भरा हुआ तिरी यादों का जाम कितना था / मज़हर इमाम

भरा हुआ तिरी यादों का जाम कितना था
सहर के वक़्त तक़ाज़ा-ए-शाम कितना था

रूख़-ए-ज़वाल पे रंग-ए-दवाम कितना था
कि घट के भी मिरा माह-ए-तमाम कितना था

था तेरे नाज़ को कितना मिरी अना का ख़याल
मिरा ग़ुरूर भी तेरा ग़ुलाम कितना था

जो पौ फटी तो हर इक दास्ताँ तमाम हुई
अजब कि उन के लिए एहतिमाम कितना था

उन्हीं को याद किया जब तो कुछ न याद आया
वो लोग जिन का ज़माने में नाम कितना था

अभी शजर से जुदाई के दिन न आए थे
पका हुआ था वो फल फिर भी ख़ााम कितना था

वहाँ तो कोई न था एक अपने ग़म के सिवा
मिरे मकाँ पे मगर इज़दिहाम कितना था