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भरी-भरी मूँगिया हथेली पर / माहेश्वर तिवारी
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भरी-भरी मूँगिया हथेली पर
लिखने दो एक शाम और !
काँपकर ठहरने दो
भरे हुए ताल
इन्द्र धनुष को
बन जाने दो रुमाल
सांसों तक आने दो
आमों के बौर !
झरने दो यह फैली
धूप की थकान
बाँहों में कसने दो
याद के सिवान
कस्तूरी आमन्त्रण जड़े
ठौर-ठौर !