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भरी भीड़ में / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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भरी भीड़ में
मैं अकेला रह गया।
यहाँ शोर है, आपाधापी
हाथ छुड़ाकर
सारे साथी चले गए।
जब-जब बाहर हुए भीड़ से
पता चला था-
हम ही केवल छले गए।
मन भी कैसे
मूक होकर सह गया।
पैरों में जो ठोकर लगती
सारी पीड़ा, भूले मन से
बात सही,
मन में चुभती हैं जो कीलें
रह-रहकरके
हर पल, हर छिन
कहाँ कही!
किला आस का
आँधियों में ढह गया।