भरे कण्ठ से भी जरा गुनगुनाये / साँझ सुरमयी / रंजना वर्मा
भरे कण्ठ से भी जरा गुनगुनायें।
चलो आज फिर दर्द के गीत गायें॥
हैं आतीं हमेशा चमन में बहारें
बड़े खूबसूरत हैं इनके नज़ारे
मेरे मन का उपवन तो सूखा पड़ा है
बहारों से थोड़ी सी खुशबू चुरायें॥
चलो आज फिर दर्द के गीत गायें॥
चलो फिर अनोखा कोई काम कर दें
ख़ुशी के क्षणों को भी नीलाम कर दें
कसक शूल की भर गयी है हृदय में
लिये अश्क़ आँखों में हम मुस्कुरायें॥
चलो आज फिर दर्द के गीत गायें॥
भरी दोपहर सूर्य भी जल रहा है
तपन को बढ़ाता पवन चल रहा है
उमस कर रही आज बेचैन इतना
किसे हाल अपनी व्यथा का सुनायें॥
चलो आज फिर दर्द के गीत गायें॥
गयीं जो बहारें पलट फिर न् आयें
न सूखें ये आँसू न लब मुस्कुराएँ
मगर गत का अफ़सोस कब तक करेंगे
उठो पीर अपनी हृदय में छिपायें।
चलो आज फिर दर्द के गीत गाये॥