भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भरे तो कैसे परिंदा भरे उड़ान / ज़क़ी तारिक़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 भरे तो कैसे परिंदा भरे उड़ान कोई
 नहीं है तीर से ख़ाली यहाँ कमान कोई

 थीं आज़माइशें जितनी तमाम मुझ पे हुईं
 न बच के जाएगा अब मुझ से इम्तिहान कोई

 ये तोता मैना के क़िस्से बहुत पुराने हैं
 हमारे अहद की अब छेड़ो दास्तान कोई

 नए ज़माने की ऎसी कुछ आँधियाँ उट्ठीं
 रहा सफ़ीने पे बाक़ी न बादबान कोई

 बिखर के रह गईं रिश्तों की सारी ज़ंजीरें
 बचा सका न रिवायत को ख़ानदान कोई

 'ज़की' हमारा मुक़द्दर हैं धूप के ख़ेमे
 हमें न रास कभी आया साएबान कोई