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भरोसा / प्रांजलि अवस्थी

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आने वाले कल
और वर्तमान के लिए
विश्वास लिए एक काँधा
जिस पर अपनी उंगलियों से
लिखती है वह "प्रेम"

और आँखें मूंद कर निकल जाती है
एक अनन्त यात्रा पर
बेखौफ़ निडर
कूदती फलांगती
नदी के किनारों पर रगीन पत्थर बीनती
छोटे छोटे टीलों की गुनगुनी आँच पर
बदन सेंकती
तो कभी गीली मिट्टी में सिमटी धूप को
मुट्ठी में भर कर
नन्हा-सा घरौंदा बनाती
कुछ सीप कुछ घोंघे और थोड़ी रेत को
कभी दोस्त कभी गृहस्थी
कभी ज़रूरत समझती
वो बन्द आँखों मुस्कुराते होंठों से
अपने उस काँधे पर
रात की चादर में चाँद छुपाती

दरअसल वह सपने नहीं देखती,
दुनियाँ बसाती है

धड़कनों की तबीयत पर
बदलती करवट पर जो हिल जाये
उसका वह काँधा
तो चिहुँक कर जाग पड़ती है

और आँखों में
यकीन के काजल को और गहरा कर
होंठो पर हाँ-ना को समानान्तर बैठाकर
सच झूठ के हर भ्रम को नींद का झोंका मान कर
पूछ बैठती है

तुम हो ना?

जबाब कुछ भी हो पर
सदैव के लिए आश्वस्त है
कि तुम हो
क्योंकि "ये भरोसा"
उस काँधे पर उसके प्रेम का पहला हस्ताक्षर था