भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भरोसा / मुकेश नेमा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुल सहज भरोसे के!
होते नहीं योजनाबद्ध
इसीलिये तो
आकस्मिक निर्माण ये
बहते है बहुत बार
विश्वासघाती बाढ़ में

हो जाती है बडी
दूरियाँ पहले से भी
पर दिक़्क़त है बड़ी
कर नहीं सकते आप
इसे ठोक बजा कर
ऐसे तो ख़रीदे जाते है बर्तन

लेकिन मानते कहाँ है
भरोसा करने वाले
पागल हैं ये
उम्मीदों से भरे!
उबर जाते हैं जल्द
बहे पुल के कष्ट से
करते है फिर भरोसा
फिर से बनाते हैं और
हो भी जाते है पार!