भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भर आया क्यों नीर नयन में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
Kavita Kosh से
भर आया क्यों नीर नयन में
मैं समीप बैठा हूँ तेरे,
तुझको मेरी छाया घेरे,
मुक्त, मृदुल-शीतल समीर ने,
पीर कौन ढाली तन-मन में!
भर आया क्यों नीर नयन में
तू अपलक कुछ देख रही थी,
किसने तेरी दृष्टि गही थी,
अब न ठीक से मुख भी अपना
दिखता होगा उस दर्पन में!
भर आया क्यों नीर नयन में!
आज रात क्या नींद न आई,
इस बेला में तू अलसाई,
चल, श्रंगार करूँ मैं तेरा
हरसिंगार झरते उपवन में!
भर आया क्यों नीर नयन में!