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भला कोई किसी का है कहाँ सारे ज़माने में / शुचि 'भवि'

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भला कोई किसी का है कहाँ सारे ज़माने में
लगे हैं सब के सब इक दूसरे को आज़माने में

हमेशा उसकी थी, उसकी हूँ, उसकी ही रहूँगी मैं
मज़ा आता है फिर भी जाने क्यों उसको जलाने में

कहानी लिख रहे हैं ग़ैर के बदनाम पह्लू पर
भले हों लाख वो बदनाम खुद अपने फ़साने में

भले ग़ुरबत में है लेकिन अजब दौलत कमाता है
दुआयें रोज़ मिलती हैं उसे पानी पिलाने में

सरलता से कहा है सच, लगे अच्छा बुरा जो भी
सुकूँ मिलना नहीं ‘भवि’ को कभी बातें बनाने में