भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भली-भांति जानता हूँ! / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जानता हूँ-भली-भाँति जानता हूँ मैं-
कि इस प्रजातन्त्र में-वाणी-स्वातन्त्र्य के इस युग में
मेरी बात भून दी जायगी,
मेरी आवाज का कबाब बना दिा जायेगा-
उठते हुए हाथों के जंगल में।
त्यौरी के साथ आततायी की तरफ उठी-
मेरी उँगली खड़ाक् से बन्दूक की नाल से उड़ा दी जायगी।

जनता की छाती पर खड़े
कुतुबमीनार-जैसे, सावन-भादों की बिजलियों को डकार जाने वाले,
जज्ब कर जाने वाले भूकम्प-प्रूफ खानदानी, नकद देश-सेवक
और अपनी नितम्ब-दबी पूँछ मरोड़ते से अरड़ायेंगे-
‘यह कौन आया है -आटसाइडर’-हमारे बाड़े मेें!’
भेड़ियाधसानी-टुकुर-टुकुर देखता ही रहूँगा मैं-
काली-पीली आँधी और वर्षा मंे जैसे डाल लुका पंछी!-
मैं बचा रह जाऊँगा अकेला-
छाती से चिपकाये-
अपनी प्यारी घृणा, झुँझलाहट, असफलता,
और मनुष्यता के शत्रुओं के प्रति
अपनी नपुंसक गुर्राहट!

1981