भली लड़कियाँ / अर्चना कुमारी
भली लड़कियाँ...
छोड़ आती हैं खिलखिलाहट
माँ के आँचल में
आँगन में छोड़ आती हैं
दौड़ने की धमक
खुले बालों की लहर
कैद रह जाती हैं सीखें सभी
बचपन के पिटारे में
भली लड़कियाँ
बालों की चोटी गूँथते ही
याद कर लेती हैं
हुनर धीमे बोलने का
पैरों को कर देती
बेआवाज़
हँसी की सीमा में
बाँध देती हैं दर्द
भली लड़कियाँ
दाहती हैं
वेदी की आग में प्रश्न
धूएँ में गढ लेती हैं उत्तर
सप्तपदी की यात्रा में
देह पर चढाती हैं सात परतें
मन को बचाए रखने की कोशिश में
भली लड़कियाँ
नहीं बरतती कोताही
स्वप्न देखने में
प्रेम में हो जाती हैं
आत्मा
भली लड़कियाँ
देह की परिधि को नकारते हुए
बचाए रखती हैं प्रेयस
साँझ के दीप की तरह
मन के अँधेरे तहखानों में
कि नहीं बचा पाती हैं
वादा प्रेयस से प्रेयसी का
समय के संतूर पर
छेड़ते ही नया राग
पुरानी धुन टीसती है भीतर
भली लड़कियाँ मर जाती हैं
झूठ होते ही खुद के
देह की देहरी पर रखी रह जाती है
मन की लाश
सवालों के सड़ने तक
परी-भाषा को गाड़ आती हैं
प्रेम के अन्तस में
और परिभाषाओं में खोजती हैं
औरत होना
अन्ततः आवारा कहे जाने की
आखिरी जद्दोजहद में
मिटा देती हैं हथेली से प्रेम की रेखा
सिन्दूर के रक्तिम पाश में ढलते ही
उग आती हैं
प्रेयस के हृदय में
नागफनी की तरह
भली लड़कियाँ...
देह भर रह भी नहीं रह पाती हैं
देहरियों से लौटते हुए...!!