भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भले मजबूरियाँ होंगी मगर हम साथ रहते हैं / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
भले मजबूरियां होंगी मगर हम साथ रहते हैं
कई चेहरे हमारे किंतु दरपन एक रखते हैं
हमारे नाम जो भी हों मगर क्या फ़र्क पड़ता है
इसी गुलशन, इसी उद्यान में इक साथ खिलते हैं
बड़े कमज़र्फ़ हैं वो लोग क्या हासिल उन्हें होगा
हमारी दोस्ती औ प्यार से जो लोग जलते हैं
हमें यूं तो कहीं दुश्मन नहीं आते नज़र अपने
मगर वे कौन हैं छुपकर जो हम पर वार करते हैं
पता जिनको नहीं दो पीढ़ियों के नाम भी अपनी
हज़ारों साल के इतिहास को लेकर झगड़ते हैं
बड़ा घर है तो कमरे,खिड़कियां,आंगन कई होंगे
मगर हम लोग इक ही द्वार से बाहर निकलते हैं
ख़ुदा मेरे मुझे इतना बता दे माजरा क्या है
कभी वो दर्द देते हैं, कभी हमदर्द बनते हैं