भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भळै सोचूं / रामस्वरूप किसान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज तो
आखौ दिन
ईंया ईं गयौ

कविता लिखीजी‘न
को कहाणी

आंख्यां में
चालता रैया घोबा
चालतो रैया पाणी

दो साल पैलां ई
बदळगया हा
चस्मां रा नम्बर

पण डाकियौ
नीं ल्यायौ
आज तक
इसौ कोई मनीआर्डर
जकौ
करा सकै आंख
भरा सकै पेट
ईं सारू ई हूं
इत्तो लेट
नीं तो
म्हैं ई जाणू
आंख नियामत हुवै
अर भळै
म्हारी तो
पूंजी है आंख

सोचूं -
आ पूंजी
हाथां सूं जावैगी
पण भळै सोचूं
आज री डाक
कीं न कीं बेसी ल्यावैगी।