नये भोर की पौ फटी, जब पड़ोस के गाँव।
प्रात-पवन सरसर बहा, था अपने भी ठाँव।।
धरती अपनी धुरी पर, रूकी तभी ततकाल।
सूरज था सो बुझ गया, थमा रह गया काल।।
यहाँ न सूर्योदय हुआ, यहाँ न फैली धूप।
कालरात्रि पसरी रही, जैसे अंधा कूप।।
जैसे पातालिक महा, पढ़ कर मन्त्र दुरन्त।
रोके गति इतिहास की, कर दे उसका अन्त।।
इतिहासोत्तर क्षितिज परद्व उदित हुये शत केतु।
चरमर चरमर काँपता, स्वतन्त्रता का सेतु।।
दूर किसी हाशिये पर, जन्म ले रहा ज्वार।
जाते जाते यह सदी, जिसको गयी पुकार।।
सीरी सीरी है हवा, ठण्डी ठण्डी छाँव।
सन्निपात का ज्वर चढ़ा, झुलस रहा है गाँव।।
दीन-हीन कुछ झुग्गियाँ, जहाँ खड़ी थीं मौन।
मुक्ति जन्म लेगी वहीं, सोच सका था कौन।।
भाषा के सोपान से, शब्द लुढ़कते देख।
पढ़ा लिखा सब पोंछ कर, लिखो नया आलेख।।
अपना दीपक आप बन, पढ़ै आप को आप।
जगर मगर आपा जगै, तब अपना कद नाप।।