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भव्य भारत-भूमि की स्वाधीनता, / राजरानी देवी

भव्य भारत-भूमि की स्वाधीनता,
जब यवन से पद-दलित था हो चुकी।
दीखती सर्वत्र थी अति दीनता,
फूट की विप-बेलि भी थी बो चुकी॥
पूर्व-यश का क्षीण स्मृति ही शेष थी,
वीरता केवल कहानी ही रही॥
बंधुओं में बंधुता निश्शेष थी,
दमन की परिपूर्ण धारा थी बही॥
शत्रुओं को दण्ड देने के लिए,
आर्य-शोभित में न इतनी शक्ति थी।
वीरता का नाम लेने के लिए,
स्यान के सौन्दर्य्य पर ही भक्ति थी॥
ललित ललनाएँ बनी सुकुमार थीं,
अंग पर आभूषणों का भार था।
रत्न-हारों पर समुद बलिहार थीं,
सेज ही संसार का सब सार था।
नेत्र लड़ना ही सुखद रण-रंग था,
चारु चितवन ही अनोखा तीर था।
क्यों न हों? जब प्रियतमों का संग था,
प्रियतमाओं-युक्त हिन्दू वीर था॥
नेत्र-गोपन का चिबुक-चुम्बन जहाँ,
प्रेम की विधि का अनूप विधान है।
मातृ-भू के त्राण की गाथा वहाँ,
पापियों के पुण्यगान समान है॥
किंकिणी की नाद असि-झंकार है,
भ्रू-चपलता है ललित कौशल जहाँ।
वीररस होता जहाँ शृंगार है,
देश-गौरव की शिथिलता है वहाँ॥

श्रीमतीजी का ‘संयुक्ता’ का यह रूप-वर्णन भी सुन्दर है:-

हो रहा कन्नौज में आनन्द है,
हष्र की धारा नगर में है बही।
बैर और विरोध बिलकुल बन्द हैं,
सर्व जनता आज हर्षित हो रही॥
भीड़ भारी हो रही प्रासाद में,
खुल गया है द्वार सारे कोष का।
नर तथा नारी हुए उन्माद में,
गूँज उठता शब्द ऊँचे घोष का॥
नारियाँ सब चल पड़ीं शृंगारकर,
राज-गृह की ओर अनुपम हर्ष से।
मधुरिमा-मय सुखद जय-जयकारकर,
हृदय के आनन्द के उत्कर्ष से॥
थालियों में फूल-मालाएँ सजीं,
गीत गा-गाकर चलीं सुकुमारियाँ।
हाव-भावों में स्वयम् रति को लजा,
मन-सहित कच बाँध सुन्दर नारियाँ॥
मुग्ध मुग्धाएँ चलीं ब्रीड़ा-सहित,
शीघ्र सकुचाकर पुरुष की दृष्अि से।
मंद गति से वे चलीं क्रीड़ा-सहित,
नेत्र चंचलकर सुमन की वृष्टि से॥
था बड़े आनंद का कारण वही,
एक पुत्री थी हुई जयचन्द के।
हर्ष से थी उमगती सारी मही,
आ गये थे दिन अधिक आनन्द के॥
देख उसकी छवि अनूप सुधामयी,
थे चकित सब व्यक्ति नगरी के महा।
सोचते थे हृदय में पुरजन कई,
रूप ऐसा मानवों में है कहाँ?
चन्द्रमा का सार मानो भर दिया,
बालिका को नवल सुन्दर देह में।
स्वयं श्री ने पास मानो कर लिया,
सरल उसके कान्तिमय मुख-गेह में॥

जिस किसी की आँख उस पर पड़ गई,
देखते ही देखते दिन बीतता।
बस उसी के हृदय पर थी चढ़ गई,
बालिका के रूप की लोनी लता॥
चारु चुम्बन से सदन था गूँजता,
समुद राका रुचिर हास-विलास था।
कौन उनके हर्ष को सकता बता,
जननि का उपमा-रहित उल्लास था॥
रुचिर मणिमय पालने की सेज पर,
बालिका कर कंज मंजु उछालती।
जब जननि लखती उसे थी आँखरभर,
बार-बार दुलारकर पुचकारती॥