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भव-सागर के तट पर अज्ञान / रामेश्वरीदेवी मिश्र ‘चकोरी’

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भव-सागर के तट पर अज्ञान, सुनती हूँ वह कलरव महान।
एकाकी हूँ कोई न संग, उठती हैं रह-रह भय-तरंग॥
केवल हैं बादल अश्रु-दान, घन का सुनती गर्जन महान॥

आती है तड़ित चिराग लिये, बिछड़ी स्मृति का अनुराग लिये;
होता है भीषण अट्टहास, बुझ जाता है वह भी प्रकाश॥
मारुत का वेग प्रचंड हुआ, वह उदधि हृदय भी खंड हुआ।
ओढ़े काले रँग का दुकूल, है अन्त-हीन-सा सिंधू-कूल।

उत्ताल तरंगे बढ़ आई छूने को मेरी परिछाईं।
उन संभ्रम शिथिल झकोरों की, ममता-सी-मृदुल हिलोरों को॥
लेकर सब शून्य उमंगों को, पकड़ा उन तरल तरंगों को।
वह चली त्याग पीड़ा-विषाद, सुध-हीन हुई, मिट साध॥

सहसा कानों में उषा-गान, झनझना उठा छू शिथिल प्राण।
सागर की धड़कन शान्त हुई, वह स्वप्न-नाटिका भ्रांत हुई॥
खिलखिला पड़ा जग एक बार, आ पहँचा मेरा कर्णधार।
यौवन-कलिका थी जाग उठी, लहरों की शय्या त्याग उठी॥

अर्पण कर प्रेम मुझे नाविक ने दिया सुहाग मुझे।
नाविक की वह पतवार-हीन, नौका थी जर्जर अति मलीन॥
द्रुत गति से नौका बहती थी, कुछ मौन स्वरों में कहती थी।
इस बार तरंगें मचल पड़ी, तरणी के पथ में अचल अड़ीं॥

मैं काँप उठी, उद्भ्रांत हुई, जर्जर नौका भी शांत हुई।
रक्षक भी मेरा था अधीर, दृग-कोरों से बह चला नीर॥
सहसा तरणी जल-मग्न हुई, छाया-सी क्षण में भंग हुई।
प्राची में अरुण मुस्कुराया, लहरांे ने प्रलय-गान गाया।

मेरा नाविक बह गया कहीं, जीवन सूना रह गया वहीं॥
फिर बिखरा दी संचित उमंग, ले गई उसे भी जल-तरंग।
मैंने हो पथ-दर्शक-विहीन, कर लिया सिन्धु में आत्मलीन॥
कितना अथाह! कितना अपार! ले चली मुझे भी एक धार।

छूटे भव-बंधन, चाह नहीं, हो जाय प्रलय परवाह नहीं॥
जाती हूँ मैं उस पार वहाँ, है मेरा प्राणाधार जहाँ-
पीने को सुख से लूट-लूट, वह प्रणय-सुधा की एक घूँट।