भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाइयाँ सेती बैर बिसाया / निहालचंद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भाइयाँ सेती बैर बिसाया, जा दुर्योधन तेरा नाश ।
हो क़द पूरे होंगे, गुप्त बरस तेरे मास ॥टेक॥
चैत महीना शुरू साल का, वनस्पति फलती ।
बैसाख लाग ज्या फ़र्क़ पड़ै, कुछ गर्म हवा चलती ।
जेठ मास तात्ती लू जलती, तपते ज़मीं आकाश ।1।
षाढ़ शुरू बारिश हो ज्याती, हों जंगल झूण्ड हरे ।
सामण भादों मैं झड़ी लागज्या, दीखैं जल ताल भरे ।
हों ईख मकी और ज्वार बाजरे, निपजै धान कपास ।2।
कुवार के बन्धे दिन हों, मिलै पित्तरों नै पाणी ।
आवै कातिक न्हाण पूर्णमासी का, न्हाँ प्रजा राजा राणी ।
मंगसर मैं हो सोड़ भराणी, करै सती पति की आस ।3।
पोह मैं छोह होता जाड्डे का, पड़ै पाळा और बर्फ कटै ।
माह मैं साधु जल मैं तपता, मुख से हरि ऊँ रटै ।
फागण मैं रंग छंटै निराला, कहै निहाल गुरु जी का दास ।4।