भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाई रे ! / प्रभात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऋतुओं की आवाजाही रे !
मौसम बदलते हैं, भाई रे !

खजूरों को लू में ही
पकते हुए देखा
किसानों को तब मेघ
तकते हुए देखा
कुँओं के जल को
उतरते हुए देखा
गाँवों के बन को
झुलसते हुए देखा
खेतों को अगनी में
तपते हुए देखा
बर्फ़ वाले के पैरों को
जलते हुए देखा
गाते हुए ठंडी-मीठी बर्फ़
दूध की मलाई रे !
मौसम बदलते हैं, भाई रे !

जहाँ से उठी थी पुकारें
वहाँ पर पड़ी हैं बौछारें

बैलों ने देखा
भैंस-गायों ने देखा
सूखें दरख़्तों की
छावों ने देखा

नीमों बबूलों से ऊँची-ऊँची घासें
ऐसी ही थी इनकी गहरी-गहरी प्यासें
सूखे हुए कुँए में मरी हुई मेंढकी
ज़िन्दा हुई टर-टर टर्राई रे !
मौसम बदलते हैं, भाई रे !

आल भीगा, पाल भीगा
भरा हुआ ताल भीगा
आकाश-पाताल भीगा
पूरा एक साल भीगा
बरगदों में बैठे हुए
मोरों का शोर भीगा
आवाज़ें आई घिघियाई रे !
मौसम बदलते हैं, भाई रे !

गड़रियों ने देखा
किसानों ने देखा
ग्वालों ने देखा
ऊँट वालों ने देखा

बारिश की अब दूर
चली गई झड़ियों को
खेतों में उखड़ी
पड़ी मूँगफलियों को
हल्दी के रंग वाले
तितली के पर वाले
अरहर के फूलों को
कोसों तक जंगल में
ज्वार के फूलों को

दूध जैसे दानों से
जड़े हुए देखा
खड़े हुए बाजरे को
पड़े हुए देखा

चूहों ने देखा
बिलावों ने देखा
साँपों ने देखा
सियारों ने देखा

आते हुए जाड़े में
हरे-भरे झाड़ों की
कच्ची सुगंध महमहाई रे !
मौसम बदलते हैं, भाई रे