भाई / आद्याशा दास / राजेंद्र प्रसाद मिश्र
‘भाई'!
कौन है वह कलाकार
लिख दिया जिसने एक ही शब्द में
कोटि ब्रह्मांड का पवित्र उल्लास
सोने में उकेरकर थाप दी एक मूर्ति
आत्मा की बेदी पर ।
धूल-खेल में साथी मेरे भाई
कितने ही गोपनीय अंतरंग कौतुकभरी गोपनीय योजनाएँ
खेल में हार-जीत, कौन अधिक लाडली, कौन दुलारा
निश्छल निरभिमान ताकत दिखाना
ट्यूशन मास्टर को चकमा देकर खिसक लेना
रातभर पढ़ना परीक्षा की तैयारी करना
कितने ही स्नेह का लेन-देन आदर सौहार्द
फिर कितने ही बिन बादल बरसात कोमल ईर्ष्या की
वाद-विवाद चपल जिद्दीपन, करो या मरो
युद्ध हुँकार |
भाई मेरे, तब किसे मालूम था कि
कितना दगाबाज़ है बचपन
उड़ जाता है सुबह की ओस-सा
क्षणिक निर्मम निष्ठुर ।
किशोरावस्था की बढ़ती नदी में
बह गया निर्मल सबेरा
मेरे भीतर की नन्ही-सी बच्ची ने
चौंककर देखा एक दिन खुद को और भाई को
सामने खड़ा था
यौवन की उज्ज्वल धूप से दीप्त
किशोरावस्था के आखिरी पाँवदान पर
मेरा भाई, बढ़ता पुरुष ।
भाई ! सारी बातें नहीं कही जातीं सबसे
जो कही हैं तुमसे बेझिझक
न जाने कितने गोपनीय अंतरंग सत्य
तुम पर अनंत विश्वास है
भरोसा भी है, मानती रही हूँ तेरी सलाह ।
फिर कभी गुस्सा, तो कभी रूठना,
छोटी-छोटी शर्त परी न कर पाना '
‘सारी बातें बता दूँगी, खोल दूंगी सारी पोल’'
डराना, धमकाना और फिर बोलचाल बंद ।
मन की बातें कहना
कागज के टुकड़ों में, टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में
मान-मनौब्बल के बुलबुले फूट जाते हैं
चिट्ठियों के लेन-देन में ।
शीतयुद्ध की समाप्ति की घोषणा होती है
इंद्रधनुष की हँसी ठिठोली में,
बारिश ही बारिश में
शरद, हेमंत, ठंड पानी की तरह बह जाने पर
बैशाख के महीने में ।
तुम मुझे बहुत याद आते हो, भाई !
हॉस्टल का वह एकांत कमरा
तुमसे दूर रहना वह पहली बार था
तुम्हारी मेरी और किसी की भावना में मैं
कवि बन गई,
लिख भेजी मैंने तुम्हें कई महाकाव्य और कविताएँ
अपना स्नेह, बचपन की यादें
हमारी दूरी की न जाने कितनी दिली बातें ।
टूटे-फूटे खिलौने, गुड़िया,
फटे-चीथड़े 'टेडी बिअर' को नाहक ढूँढ़ने की व्यथा ।
उस दिन लौटे थे तुम भी भाई पढ़ाई पूरी करके,,
बज रही थी शहनाई हमारे घर के आंगन में
मेरे उस परंपरागत ‘वधूवेश’' की रंग-बिरंगी आभा में
भाई मेरे, ढूँढ रहे थे तुम
मेरी आँखों को भेदकर दिल में
मेरी खुशी और मुस्कान की सचाई ।
जवाँई राजा की अगवानी, बारातियों की खातिरदारी
हथेलियों की गाँडे,
अग्निसाक्षी कन्यादान
कितनी जल्दी खत्म हो जाता है पिता के घर का
लाड़-प्यार खुला स्वच्छंद जीवन ।
पल में बेटी की बिदाई,
गोद में लेकर देहरी लँघाई तुमने
बिदा कर दिया - अपनी लाडली बहन को
सीने से हटाकर अपने, आँसुओं से तर-ब-तर
इकलौती बहन को
पराया कर दिया, रुलाई की लहरी से कान मूंद लिया
खड़े थे पत्थर बन
मर्द की तरह गंभीर हो बिदाई की बेला में ।
साल दर साल इसी तरह बीत जाते हैं
बँधी-बँधाई जिंदगी के कर्तव्य के बोझ से
तुम तो गवाह हो,
मेरे जीवन की प्राथमिकताओं के बदल जाने के
तुम तो गवाह हो
मेरी भूमिका के अंतराल में अपहरित
बचपन और किशोरावस्था के ह
मारे निर्मल स्नेह के
मुँह छिपाकर रोने के ।
जहाँ भी रहो तुम
कितना ही बदल जाओ
हमेशा रहोगे तुम मेरे बचपन के साथी
छोटे भाई, लाडले भाई मेरे
तुम हो मेरे मनोबल में,
शक्ति और सांत्वना में
मेरे आत्मविश्वास में हो
मेरी साँसों-उसाँसों में हो
बहते हो धमनी और नस-नस में
मेरे प्राण के
मेरे रक्त के भाई !
जन्म जन्मांतर |