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भागीरथी नदी घाटी सभ्यता / शिवप्रसाद जोशी

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दुनिया के नक्शे पर
नील नदी बहती है
सिंधु नदी बहती है
मिस्र और हड़प्पा भी बह रहे हैं उनके साथ
जैसे भिलंगना और भागीरथी के साथ बह रहा है टिहरी
लोगों को यहाँ-वहाँ विदा कर
मोहनजोदड़ो या बेबीलोन की तरह
अभी डूबता प्रकट होगा खुदाई से कभी
टिहरी नगर
बिखरा हुआ हबड़-तबड़ का खंडहर
दुनिया के किसी भी हिस्से से देखा जा सकता है डूबा हुआ टिहरी
बस अड्डे को जाने वाली सड़क अब पानी में उससे मिलती थी
मकानों के पत्थर और पलस्तर पानी के नीचे नई संरचना बनाने पहुँच गए थे
जिन्हें आने वाले वक़्तों में पहचाना जाना था
नदी के पत्थरों से बने मकानों के चारों कोने ही खड़े थे जर्जर
मानो उन्हें और ऊँचा बनना था
याद के ढाँचे को संभाले हुए बेशक
लाइटहाउस की तरह दिखते
रोशनी दिखाने की कोशिश करते डूबते जहाज़ को
जिसके एक छोर से रिसता दूसरे पर पानी चढ़ता था
अलग-अलग खानों वाली मालू के पत्ते की थाली हो गया था टिहरी
या बियाबान में पड़ी टेढ़ी-मेढ़ी तश्तरी
पानी उलीचना जिससे नामुमकिन था
कितना मुश्किल है ये भी कि न याद आए टिहरी
अपनी नदियों जितनी लंबी गहरी और प्रचंड तड़प का शहर
इसी वेग की बदौलत प्रजामंडल ने रोक दिया ज़ालिम राज काफ़िला
राजशाही के टापू पर प्रजा की सरकार रही कुछ समय
रियासत के अहम के खिलाफ़ यह अपनी तरह का पहला जनआवेग था
नवजात आज़ाद मुल्क का जनतांत्रिक ‘रजवाड़ा’
यह टिहरी कितनी लड़ाइय़ों से निकला
आज़ादी की फिर आज़ादी की और फिर आज़ादी की
आखिरकार पानी में जाकर इसे हमारी याद में ही आज़ाद होना था
इक्कीसवीं सदी ईसा पश्चात की तारीख 2 अगस्त और सन् 2004 को
भागीरथी नदी घाटी की सभ्यता की डूब में झिलमिलाता हड़प्पा
हो गया टिहरी जो
अपने ही किसी बहुत पुराने घर के बहुत पुराने कोठार की तरह
बहते बहते आ गया यहाँ तक और उसमें कितने खेत कितनी दालें कितने गीत और कितनी आवाज़ें भरी थीं यह अंदाज़ा लगाना कठिन था
सारी चीज़ें एक बड़े सन्नाटे में बदल गई डूब के अहसास की ओट में
जा छिपी कोई दुल्हन अपनी जादुई कारीगरी वाली नथ पहने
उन नथों को बनाने वाले सुनार भटकते हुए न जाने कहाँ गए
अपने उन साथियों का पता भी न था उनके पास जो सिंगोरी की पत्तों वाली मिठाई
बनाने वाले उस्ताद थे
बाज़ार ऐसे उखड़ा देखते ही देखते जैसे पेड़ पर बने मकान को उखाड़ा लोगों ने
विस्थापन के कानूनी सबूत थे वे बहुत पुरानी लकड़ी के फट्टे
पहले पेड़ से अब टिहरी से विस्थापित
वही गड़ा रहा सभ्यता की छाती पर आखिरी निशान की तरह
बिना घड़ी का टिहरी का घंटाघर
एक व्यर्थ खोखली मीनार
अपनी चिनाई की तरह झड़ती
बांध के पानी पर
रियासत के खोखलेपन का अंतिम अवशेष
साम्राज्य के प्रतीकों की किरचियाँ पानी में एक-एक कर चली गईं
पानी से एक-एक कर बाहर आ गए हारमोनियम गले में डाले गुणानंद पथिक
ज़ंजीरों को तोड़ते श्रीदेव सुमन
अपने सीने में घुसा कारतूस निकालते हुए आते नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी
उनके पीछे-पीछे आती सभी संघर्षो की याद
टिहरी अब नक्शे की लकीरों के अंदर लौट गया है
उसकी जगह धुंध बची है
याद को लपेटे हुए कभी न ख़त्म होने वाले गीलेपन से भीगी हुई।