भाग्य और कर्म / आरती 'लोकेश'
भाग्य और कर्म में थी आज छिड़ गई जंग।
किसकी गरिमा कौन अब कर सकता भंग।
विश्वास आत्मविश्वास भी खड़े साथ थे संग।
दोनों परेशान हुए दृश्य यह देख रह गए दंग।
मिलता हूँ मैं कुछ को देर से याकि सवेर से,
चमचमाता भाग्य मैं हूँ दिखूँ समय के फेर से।
समय की चट्टान पर मेरे पड़ते अमिट निशान,
कर्म पूजा कर के प्राणी जग में पाते हैं सम्मान।
कर्म से क्या लेना उन्हें जिनपर मैं जाऊँ फ़िदा,
मेरी कृपा से वे लोग बन जाते जग से ही जुदा।
यही तो विषाद है तुम कर देते सबसे पृथक,
मैं तो सबके साथ हूँ जो श्रम करते हैं अथक।
श्रम संघर्ष भाग्यहीन का जीवनभर का मरण,
मैं बैठे ही पाल देता कर पुश्तों तक का भरण।
तुमवश पीढ़ियों ने सीखा आलस दुर्व्यवहार,
तुम ही उत्तरदायी हो जब-जब हुआ अत्याचार।
तुम रंक, तुम कलंक, तुम क्षुधा, तम औ’ पंक,
विश्वास मेरा सूर्य है, जो झिलमिलाता मेरे अंक।
अहंकार के तुम पिता, अज्ञान की तुम जननी,
कर्मठों के आत्मविश्वास के समक्ष मात्र छननी।
बहुत हो गया बंद करो अपना आलाप-प्रलाप।
रुक कर थमकर दोनों सुनो चुपचाप यह प्रताप।
विश्वास-आत्मविश्वास हैं नहीं है संताप-विलाप।
हम दोनों साथ-साथ हैं ज्यों दो बिंदु एक चाप।
गीता सार मनोरथ-उद्यम, एक गिन्नी दो पटल,
मृग स्वयं मुख न जावे, कितना ही सिंह विकल।
भाग्य कितना भी अटल कर्म बिना है निष्फल,
भाग्य-कर्म के मेल से हिमालय शीर्ष से सफल।