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भाग्य होता,भाग्य-सा ही / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
भाग्य होता, भाग्य-सा ही, काश मेरा
तो मुझे मिलता नहीं वनवास मेरा।
चाँद-तारे की नहीं है बात
जुगनुओं की रौशनी तक बन्द
तीर से घायल हुआ फिर क्रौंच
फूटते करूणा-कणों के छन्द
भर गई मन में पुरानी चीख है फिर
थरथराता देह का आकाश मेरा।
साँस तक मेरी हुई न साँस
कौन जाने, कब छलेंगे प्राण
कल न जाने गा सकूँ मैं गीत
बीच में ही टूट जाए तान
धार में मैं भी बहूँगा, आज न कल
आँसुओं में बह रहा उल्लास मेरा।
मेरे मन, क्यों दुखित ऐसे आज
उँगलियाँ, फिर से उठाओ साज
गूंज कल्याणी की गूँजे-मंद
स्वप्न के सर पर चढ़ाओ ताज
चक्र में सब ही बंधे, छुपते-निकलते
लौट आयेगा, गया, मधुमास मेरा।