भाग 13 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि
दोहा
पग नूपुर धुनि सुनत ही, मार्यो सर ता संग।
धारू के पग में लग्यो, गिरी बिकल ह्वै अंग॥123॥
देख नृपति या इलम को, रह्यो चकित मन चेत।
दूजी तें ऐसी कही, नाच्यौ करि जुत हेत॥124॥
बैठे भूपति सोच में, यह इलमी बेडौल।
इतने में आयो तहाँ, महिमा मीर मँगोल॥125॥
लघु नाराच
लख्यौ हबाल यों जबै। कहीसु बात यों तबै॥
उड़ानवेग नाम है। जु बंधु मेरो बाम है॥126॥
उसी कियो हि काम है। बड़ोइ बे निकाम है॥
चलाय सब्दबेध ये। कमान बान कौ छियै॥127॥
दोहा
तबै नृपति ऐसे कही, सुनि महिमा मंगोल।
जो कछु तुममें इलम है, देव सबै अब खोल॥128॥
जबै मीर मंगोल ने, कही नृपति सुन लेहु।
मोमैं ऐसो इलम है, सुनिये करिकै नेहु॥129॥
जहँ लगि पहुँचै दृष्टि मो, तहँ लगि मारौं तीर।
हुकम करौ सो मैं करूँ, लखि रीझैं सब बीर॥130॥
कही नृपति तब मोद करि, बादसाह कों मार।
जड़ ही डारौ कटिकै, क्यों दल करैं संहार॥131॥
मीर कही तब नृपति सों, हाथ जोर सिर नाय।
जनम्यौ जबहीं ते पल्यौ, रम्यौ नौन सब काय॥132॥
बादसाह के अंग में, मैं नहिँ मारौं बान।
छत्र काटि डारौं अबै, जो सिर है सुलतान॥133॥
डेरा दऊँ उड़ायकै, तौ महिमा मंगोल।
बादसाह के चित्त में, भरी महा है पोल॥134॥
हुकम कियो नरनाह ने, काटौ छत्र जु हाल।
तान बान मारौ तबै, छत्र निसस्त्र सँभाल॥135॥
लिखि रुक्का में या तरह, दियो तीर तें बाँधि।
नाम सुमर उस्ताद को, फिर मार्यो सर साधि॥136॥