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भाग 19 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि

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दोहा

इहि बिधि सजि चतुरंगिनी, साजे सस्त्र समाज।
जुट्यो जाय जब जुध्ध में, आगे दै गजराज॥187॥

कवित्त

कूच कियो डेरा महाराज श्री हम्मीर देव,
घेरा कियो जाय बादसाह को उमड़ि कै।
छूटि गये छक्के छितिपालन के छिति छोर,
फूटि गये सेस फन, भूमि पड़ी धड़िकै॥
‘ग्वाल’ कवि बीरन के फड़कैं सु-भुज-दंड,
धड़िकैं अरिंद-हिय चहुँ चक्र चड़िकै।
कड़कि-कड़कि डाढ़ कोल की कड़ाके भरैं,
तड़कि-तड़कि पीठ कच्छप की तड़िकै॥188॥

छन्द

छुटैं बान दल में घनै सनसनाते।
चलैं फेर भाले तहाँ घनघनाते॥
चलैं फेर बरछे कढ़ैं वार-पारं।
हनै फेर बरछी करै सो सुमारं॥189॥

छुटै तोपख़ाने नृपति के तड़ातड़।
छुटे हैं जँभूरे हजारों भड़ाभड़॥
करैं जमधरों की सुघातें अनेकं।
किते पेसकबजे चलावैं सटेकं॥190॥

किते तीर मारैं तने कान ताँई।
चलैं चक्र भारी छुटैं ज्यों हवाई॥
किते गुर्ज घालैं करैं सत्रु सालें।
चलैं हैं किती ही जहाँ अस्व नालें॥191॥

छुटैं बन पै बान कितनी बँदूकैं।
भरी गोलियों से हैं कितनी सँदूकैं॥
लगैं जाय छररे तुरक दल बिनासैं।
चलैं गोल गोले जँजीरी प्रकासैं॥192॥

किते बंब के जाय गोले अकासैं।
फुटैं जाय दल में करैं सत्रु नासैं॥
चलैं तेज तेगा चलै है असीलं।
किती ही सिरोही हनै जाय फीलं॥193॥

चलैं हैं सु-केते झमंकैं दुधारं।
चलै फेर कत्ता फलत्ता पसारं॥
कराचोलि केती करै काट बैरी।
चलैं केती किरचें सुकत्ती दहैरी॥194॥

किती सैफ़ करती सफा दुस्मनों को।
चलैं घोंप केती चलावै घनों को॥
पटे के चलैया पटे को चलावै।
इकंगी दुवंगी किते ही हिलावै॥195॥

किती पलटनैं हैं तिलंगों की तैसी।
सजी बिरजिसे और कुरती तनैसी॥
कमर पर कसे तोसदाना बरे हैं।
सुछररे गोलिन के गंजे भरे हैं॥196॥

चमंकौ किती ही संगीनै संगीनै।
दगै बाढ़ पथ्थर कलौं की अदीनै॥
झलक सूर केते मिलै टोपियों की।
करैं फेर पल-पल कज़ा तुरकियों की॥197॥

किते ही अजीटन किते सूबदारं।
किते हि सु कपतान धीरं अपारं॥
किते ही जमादार दौरे दपट के।
किते ही कु मैदान मारै झपट के॥198॥

किते ही रिसाले करैं दौड़ हल्ला।
किती रिजमने तोडती सत्रु कल्ला॥
किती कंपनी ये जुदी होय करिके।
हनै सत्रुओं को कड़ाबीन भरिकैं॥199॥

इसी रीति केहैं सु-कंपू किते ही।
जिन्हें देख दुरजन सुकंपै जिते ही॥
चे चक्रव्यूहं सुव्यूहं अनेकं।
करैं जुध्ध भारी टरै नाहिँ टेकं॥200॥

किये केसरानी नृपति बीर बाने।
बँधे बीर कर में सु कंकन अमाने॥
गिनै नाहिँ कोई किसी को गरब्बै।
जुटैं क्यों न आकै असुर में अरब्बैं॥201॥

लडैं आय दानव, दलै हम तिनौं कों।
भिड़ै आय राक्षष हनै हम तिनौं कों॥
अमर भी समर आय हम सों करैंगे।
तऊ हम उनौं तें न टारे टरैंगे॥202॥

रसापति कलित चक्र होरी मचाई।
बपुष मत हुए औ’ बडी जैब छाई॥
परे पूर पिचकी बँदूकैं जहाँ ही।
सतघ्नी भरे दमकला है तहाँ ही॥203॥

कडाबीन की गोलियाँ कुमकुमें हैं।
गुलालों की मूँठें चलैं चक्र जे हैं॥
चलावैं सुमन की छडी लों सु तेगैं।
बलकि बीर किलकें सुकूदें अवेगैं॥204॥