भाठी के वियोग जोग-जटिल-लुकाठी लाइ
लाग सौं सुहाग के अदाग पिघलाए हैं
कहै रत्नाकर सुवृत्त प्रेम सांचे मांहि
काँचे नेम संजम निवृति के ढराए हैं
अब परि बीच खीचि विरह-मरीचि-बिंब
देत लव लाग की गुविंद-उर लाए हैं
गोपी-ताप - तरून-तरनि-किरनावलि के
ऊधव नितांत कांत मनि बनि आए है