भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाड़ में जाओ / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भाड़ में जाना उसके लिए
रोजी़ है-गाली नहीं
मुर्गों को उठाती-सी,
उठती है प्रतिदिन
सिर पर लादकर रहेठे, खर...
पुआल का गट्ठर
जाती है भाड़ की तरफ़
जो मुँह बाये कर रहा होता है उसका इन्तजार

सुस्ता कर पल-भर, जलाती है उसे
और गर्म होने लगता है मोटियों में रखा बालू
फिर पूरी तन्मयता से सुनती रहती है

चावल, चने, मटर और मक्के का सोंधा संगीत
गरीबी में दिखाकर दीनता दिखाते हैं
अनाथ बच्चों की तरह...
कुछ दाने जलकर कोयला हो जाते हैं
गर्भपात करा दिए गए नाजायज भ्रूण की तरह
पर...
नहीं रुकते उसके हाथ

न छिटकें-न छटपटाए ताकि
न दिखें दीन
उसके अपने बच्चे
मौसम के प्रहारों से बेखबर
अंधेरा होने तक
वह रहती है भाड़ में

इसी के बल पर थूक दिया था उसने
भाग गए मर्द के नाम पर
बनी थी नंगों के लिए नंगी
रखा था बिरादरी को ठेंगे पर
फेरा था रसिकों की
ससिकता पर झाड़ू
थी जीवन-संघर्ष में अजेय

और बनाए, बचाए, जिलाए
सँवारे हुई थी दुनिया
अपने ढंग से...।