भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भारति, जय, विजय करे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भारति, जय, विजयकरे !
कनक-शस्य-कमलधरे !

लंका पदतल शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल,
धोता-शुचि चरण युगल
स्तव कर बहु-अर्थ-भरे ।

तरु-तृण-वन-लता वसन,
अंचल में खचित सुमन,
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल धार हार गले ।

मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
प्राण प्रणव ओंकार,
ध्वनित दिशाएँ उदार,
शतमुख-शतरव-मुखरे !