भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भारतीयता को निहार रही हूँ / संजय तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गौतम
मैंने सृष्टि को देखा है
यह जीवन तो महज एक रेखा है
इसी रेखा में गधे जाते हैं इंसान
इंसान भी बन जाता है भगवान्
इसका एक ही मानक है
और नियामक भी एक है
स्त्री तत्व ही यहाँ नेक है
शिव से जब निकल जाती है
तब धरती भी नहीं पाती है
स्त्रीहीन होकर बनता है शव
अस्तित्व से पराभव
सीता से ही बनता है
राम का अस्तित्व
राधा से कृष्ण का स्वामित्व
इनका ज्ञान
नहीं है आसान
एक हो जाते है
पाताल? धरती और आसमान
सोचो
हम कितना कुछ खोते?
अगर कैकेयी न होती
क्या राम भी होते?
ये महज कथाये नहीं हैं
क्रान्ति का हैं इतिहास
बिलकुल हमारे ही पास
जगत
जीवन
सृष्टि
और सम्बन्धो का सम्मान
यह है इस संस्कृति का अभिमान
यहाँ कभी पलायन की
नहीं हुई है पूजा
संघर्ष पथ ही विकल्प
नहीं कोई दूजा
यहाँ शक्ति की सत्ता ही चलती है
हम भारत हैं
भारतीयता ऐसे ही पलती है
भारतीयता को निहार रही हूँ
इसीलिए तुम्हें पुकार रही हूँ।