भारत-भूमि / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
जय-जय गीता-ज्ञान-प्रकाशिनि
देवभूमि जय-जय श्रुतिवादिनि;
हिकिरीटिनी जय जग-जननी
तापहारिणी जय मधुसरणी।
रूपगर्विता जय वरवर्णी
जय-जय भुवामोहिनी धरणी;
जय-जय शौर्य समृद्धि-प्रदायिनि
जय-जय-जय सौभाग्य-विधायिनि।
पश्चिम से पूरब तक फैला
दुर्गम अम्बर-केश हिमालय;
रजत मुकुट जिसको पहनाता
युग-युग से अजेय महिमामय।
आत्म-तारिणी गंगा-यमुना
हैकल-सी मोती-नीलम की;
सुजला-सुफला-शस्य-श्यामला
छाती पर लहराती जिसकी।
जिसके पद-अम्बर के नीचे
लंका कमल-कली-सी शोभित;
जिसके चरण-रेणु की करता
हिन्द-महासागर अभिनन्दित।
मध्य भाग में बही नर्मदा
फेनिलोर्मियों से अभिनर्त्तित;
कल-कल कर कृष्णा, कावेरी
फहरातीं अंचल को सुललित।
कटि में कमरधनी-से वेष्टित
विन्ध्या और सतपुड़ा पर्वत;
बिखरीं झेलम, सतलुज शत-शत
लहरों में लहरा कुन्तलवत।
खड़े चतुर्दिक इन्द्रध्वजा-से
गिरि दुर्जय बनकर रखवाले;
महामेघ के जल से धोये।
स्वर्णप्रभासित शृंगोंवाले।
त्याग नहीं देती गौरव-श्री
मिट जाने पर भी जिस भू को;
विश्व-भ्रमण करते जयों रवि की
प्रभा त्यागती नहीं मेरु को।
जल के ढोके ढोनेवाले
ओढ़े काले कम्बल बादल;
मधुरस-वर्षण से कर देते
जिसको उर्वर, शीतल, शाद्वल।
कड़का कड़ी हृदय की कड़-कड़
करते जहाँ घोर गर्जन-स्वर;
मतवाले दिग्गज-से मन्दर
विद्युत् के अंकुश से छिद कर।
जहाँ वृक्ष शैवाला-सदृश हैं
विम्बित झीलों में, नदियों में;
पर्वत के टुकड़े कछुवे-से
झरने की गहरी दरियों में।
नृत्य-कला की शिक्षा देता
जहाँ दण्डकारण्य मनोहर;
मस्त मयूरों के नर्त्तन से
हरितवरण विटपों को सुन्दर।
ताम्रवर्णप्रभ आम्रविपिन में
कूक रही कोयल मतवाली;
लहराती नागिन के फन-सी
भ्रमित भ्रमर से तरु की डाली।
विचर रहे दुर्गम कानन में
जहाँ भेडिए, रीछ भयंकर;
गण्डस्थल से मद टपकाते
गरबीले गज, दुर्जय नाहर।
जिस भूमण्डल का तिल-भर भी
रिक्त नहीं तीर्थ-स्थानों से;
जो मणि की लड़ियों से भूषित
खेतों, वन-बागों, खानों से।
जिसकी कोमलता को लखकर
ठेठ ग्रीष्म-ऋतु में भी दिनकर;
अधिक नहीं होने देता है
अपनी किरण-आँच को खरतर।
रहनेवाले जिस भूतल के
डरते केवल शास्त्र-नीति से;
जीता जिनको जा सकता है
धर्म-रीति से; नहीं भीति से।
वीर-प्रसू जिस कर्मभूमि के
जहाँ आज भी बुड्ढे खंडहर;
तलवारें खनकार रहे हैं
किरण-धार बन तिमिर-दुर्ग पर।
जहाँ प्रेम-रत शाहजहाँ के
टपक-टपक कर गरम अश्रु-कण;
लटक गए यम के कपोल पर
विश्वविमोहन ताजमहल बन।
तुलसी, सूर, कबीर, बिहारी
कालिदास, विद्यापति, भूषण;
हुए कवीन्द्र रवीन्द्र जहाँ पर
काव्य-कला-स्वर-सुधा-विदोहन।
बसे ग्राम जनपद, उभार पर
भू के, भासित विम्ब कान्त से;
मेरुदण्ड बन परम्परा के
सौम्य, शिष्ट, श्रीमन्त, शान्त से।
भिन्न-भिन्न जो धर्मों, वर्णों
और जातियों, समुदायों का;
बना सांस्कृतिक केन्द्र-बिन्दु है
विविध बोलियों, भाषाओं का।
जहाँ मन्दिरों में ध्रुव शाश्वत
दिव्य तूर्ण बजते रन-घन कर;
मस्तानी अज़ान मस्जिद में
उन्नादित होती रह-रह कर।
दुर्दिन मंे भी जहाँ कृषक-जन
ढोल, धुन्धुरी, झाल बजाते;
विरहे, फाग, वसन्त, कहरवे
चाँचर गाते, मन बहलाते।
श्रान्तिहरण जिन स्वर-घोषों से
पंख-भंग दुख-भूधर फूटें;
सौ हजा़ार तहवाले बादल
घुमड़ घनन अम्बर से छूटें।
धान, मखान, पान, हरिचन्दन
सिन्दुवार, केशर से कुसुमित;
धव, अंकोल, कुरण्ट, केतकी
शाल, तमाल, सिरिस से सस्मित।
लहराते आँवला वनों में
नीम, बेल, नीबू, बड़, कटहल;
लदे सुशोभन फल-फूलों से
ताड़ खजूर, लताम, नारियल।
आम, ईख, लीची, सिंघाड़े
केले, दाख, आमड़े, बड़हर;
तथा और भी भिन्न वर्ण के
झाड़, वृक्ष, पर्णांग मनोहर।
घिउरे, सेम, मटर बाड़ी में
रामतरोई, मँगफली है;
और मोगरा फुलवाड़ी में
सिरस, माधवी, सोनकली हैं।
छप्पर पर कद्दू चढ़ लतरे
आँगन में मह-मह तुलसी हैं;
मटमुमरे खेतों में गेहूँ
जहाँ धान, सरसों तीसी हैं।
तरु-झुरमुट में जहाँ बसन्ता
बया, पतेना, नीलकण्ठ हैं;
छिछले ताल-तलैयों में भी
चकई-चकवा, राजहंस हैं।
जिसको जब से जाना हमने
तब से ही जग को भी जाना;
जिसके जीवन से ही जीवित
रहकर जीवन को पहचाना।
जिसके प्रेम-तार से गुम्फित
जीवन का प्रिय हार हमरा;
जिसके रजकण से आलोकित
सोने का संसार हमारा।
वही हमारा पुण्य देश है
पराधीन, शृंखलित, तमोमयद्ध
क्षीणप्राण, पाण्ड्डुर, निःसम्बल
आर्त्तनाद से कोलाहलमय।
उसी भूमि को आज हमारी
परवशता का दुर्मद शासन;
जला रहा रौरव ज्वाला में
तक्षक-सा फैला कर विष-फण।
हरी-भरी उस तपोभूमि के
कोटि-कोटि जन मैले, नंगे;
सत्ता के बूटों की ठोकर
खाकर हुए पंगु, भिखमंगे।
भाई पर भाई गुर्रा कर
दौड़ रहे फुंकार सर्प-से;
छù-कपट का चक्रव्यूह रच
हिंसातुर दुर्दान्त दर्प से।
एक दूसरे के लोहू के
प्यासे बन कर हैं बैठे जो;
महाज़ोर के तूफ़ानों में
भी ऐंठे-अकड़े बैठे जो।
हम क्यों इन पर फूल चढ़ावें
ढेले कैसे फेंकें उन पर।
जो अपने ही गर्व-दन्त से
काट रहे अपनी जिह्वा घर।
जनपथ द्वेष-रक्त से बन्धुर
द्विधाग्रस्त सन्त्रस्त खमण्डल;
बँधा अकालों का ताँता है,
शोक-धूम से भरा दिगंचल।
ऊँची-ऊँची लपटोंवाला
फैला संकट का दावानल;
झुलसता ऊर्ध्वंग ज्वाल में
नर को शूलप्रोत नरकानल।
अर्थप्रेत जिनके अन्तर से
गरम-गरम लोहू पीते हैं;
खाल नोच शोषण-सँड़सी से
भरते निज उर-घट रीते हैं।
निठुर काल ने मसल दिया है
जिनके सस्मित कुसुमानन को;
मदोन्मत्त गज रौंद डालता
जैसे केले के कानन को।
लगी पूँछ में आग विहग की
नहीं छोड़ती जैसे पीछा;
वैसे ही विपदा भी जिनका
नहीं छोड़ती करना पीछा।
सह लेते जो नीचे सिर कर
प्रलयवाहिनी बर्बरता को;
शेषनागशायी ईश्वर की
देन समझते दरिद्रता को।
फेरा करते हाथ स्नेह के
मरते दम तक जिस पर अपने;
चिन्ता ने जिनके मुँह खूँदे
जिनको दो दाने भी सपने।
नहीं कहीं के रहे, गिरे हैं
नीचे दब कर दीन बने जो;
ढहे ढूह ऊसर मिट्टी के
ठँठे तरु-से हीन बने जो।
जीवन जिनका चिर-दण्डित है
जीवन जिनका कृश खण्डित है;
फटा दरारों से घावों के
जीवन जिनका घृणित-गलित है।
धँसे पंक-तम के जो भीतर
गिनते जीवन के क्षण ऐसे;
स्नेह-शून्य दीए की बाती
धुँधुआती लप-झप कर जैसे।
भूख-प्यास से व्याकुल होकर;
भीतर-बाहर से जो जलते
दुस्सह दारुण दुर्योगों में
पिघल बताशे-से जो गलते।
दीख रहे सर्वत्र जहाँ गाँवों
में लूले-बैहंगे हैं;
माँग रहे द्वारे-द्वारे पर
जीवन के दाने महँगे हैं।
गमले के पीले गुलाब-से
दुख के झटके से जो फूटे;
कितने चंगेज़ों ने जिनको
पाशव निर्दयता से लूटे।
गर्म देगची के चावल-से
पक-पक कर जो माँड़ हो रहे;
लगे गात जिनके धमनी को
धुने रुई केतार हो रहे।
गर्वोन्नत घन के गर्जन में
क्रुद्ध पवन के संकर्षण में;
अग्नि-नयन प्रज्वलित ग्रीष्म के
प्राणनिरोधन तीव्र दहन में।
करते छातीतोड़ परिश्रम
कोड़ धरा की कोख हिलाते;
खाद बनाकर हृदय-रक्त को
पत्थर में भी फूल खिलाते।
जरा-जीर्ण हो जाते जिनके
उर में सुख-दुख सड़-गल-पच कर;
और अन्त में चिता-अनल ही
जला डालता जिन्हें धधक कर।
बने वज्र उन दधीचियों
की हड्डी से सौ गाँठों वाले;
जो विपदा के वृत्रासुर के
दाढ़ों के रजकण कर डाले।
भाग्य-गगन में खिलें हमारे
सुख के तारे प्रिय रतनारे;
चन्दन-चूर्ण बनें धुँधआते
पथ के लाल-लाल अंगार।
सदियों के सोए हम जग कर
कर्मपरायण प्राणश्वसित हों;
अगणित हृदय और कण्ठों से
गगनविदारण राग ध्वनित हों।
धूमकेतु या पुच्छल टूटें
ठनकें बादल, बहें प्रभंजन;
उसमें भी गाण्डीव हमारा
टंकारे दिग्बन्ध-विभेदन।
हम अखण्ड संयुक्त शक्ति से
फाड़ खायँ मणिधर भुजंग को;
दें अभरन को भरन, कंक को
अन्न, शरण अशरण अपंग को।
सिन्धु-घोष से हमें बजाना
होगा तूफ़ानी रण-डंका;
घिरी अटाओं से सोने की
हमें जलानी होगी लंका।
हिल्लोलित करना होगा
जन-जीवन में यौवन का झरना;
जीर्ण-पुरातन पतझड़ में
होगा वसन्त को कुसुमित करना।
निकल रहा वह तमचर दिनकर
उदयाचल के स्वर्ण-शृंग पर;
रथ-चक्रों के घर-घर रव से
मुखरित करता अन्ध घन-विवर।
तड़क रही है लौह-शृंखला
खिले जा रहे तिमिर नयन हैं;
जड़ रजकण में नटवर-तन घन
उमडे़ आते रस-बरसन हैं।
तरुणाई का रक्त रंग-ध्वज
दिगदिगन्त में लहराए रे;
ताप-शाप से मुक्त, हर्ष से युक्त
धरणि यह हो जाए रे।
जिसने नीलकण्ठ बन शंकर
उग्र हलाहल पान किया है;
उल्का के समान ज्वालामय
कालकूट को पचा लिया है।
उसकी सुधास्राविणी वाणी
आंगिरसी बन कर कल्याणी;
मन्त्रद्रुमित कर दे जीवन के
मरु-उर-प्रान्तर को पाषाणी।
निष्ठापूर्ण विनय से जिसने
अभिशापित जीवन अपनाया;
मद-उच्छृंखल दुराचारियों
को भी जिसने हृदय लगाया।
उसके ताल-व्यजन पाशव
उत्पीड़न के विष-विटप उखाड़े;
उस सहस्र ब्रह्माण्डों के नरकों
के महासमुद्र सुखा दे।
जिसने दमन, दण्ड, शूली के
सहकर कशाघात दुर्दमतर;
खुशी-खुशी पहना काँटों का
ताज द्वेष से ऊपर उठ कर।
उसकी ज्वालामयी साधना
शक्ति भरे निर्बल प्राणों में;
घन-विषाद के सर्प-दन्त से
डँसे हुए जड़ म्रियमाणों में।
जैसे मेरु प्रचण्ड वायु से
नहीं काँपता दृढ़ रहता है;
जैसे ध्रवतारा खगोल में
एक समान अडिग रहता है।
वैसे ही निज स्वत्व-प्रात्पि के
अधिष्ठान में हम निश्चल हों;
कोटि-कोटि हम पद-लुण्ठित जन
दृढ-मनस्क, निष्किम, अटल हों।
जैसे राहु-मुक्त रवि दुर्गम
गगन-गुफ़ा से पुनः निकल कर;
प्रस्तारित करता मणि-किरणें
स्वर्ण-प्रभा-मण्डित रथ पर चढ़।
वैसे ही हम वर्ग-राहु से
मुक्त धरणि में भासमान हों;
सर्व स्वतन्त्र समत्व भावना
से उद्दीपित ऋद्धिमान हों।
(रचना-काल: अक्तूबर, 1946। ‘विशाल भारत’, दिसम्बर, 1946 में प्रकाशित।)